नई दिल्ली/वार्ता। समर्थकों और विरोधियों के बीच समान रूप से आदर प्राप्त अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार प्रधानमंत्री रहने से पूर्व लंबे समय तक देश की राजनीति में विपक्ष का पर्याय बन गए थे। छह दशक से ज्यादा समय तक राष्ट्रीय राजनीति में छाए रहे वाजपेयी स्वच्छ छवि वाले नेताओं की अग्रणी पंक्ति में शामिल थे।
एक राजनेता के अलावा वह कवि, पत्रकार और प्रखर वक्ता के रूप में भी लोकप्रिय रहे। वह आज के दौर के ऐसे विरले राजनेताओं में से थे जिन्हें वास्तव में आम लोगों का निर्विवाद नेता कहा जा सकता है। पच्चीस दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक शिक्षक पिता के घर जन्मे वाजपेयी के स्वभाव में सौम्य व्यवहार और शांतिप्रियता के साथ दृढ़ निश्चय और निडरता का अद्भुत संगम था।
शक्ति और शांति का समन्वय
प्रधानमंत्री रहते हुये एक तरफ उन्होंने ‘कारवाँ-ए-अमन’ के जरिये अपनी शांतिदूत की छवि को स्थापित किया तो दूसरी ओर पोखरण में परमाणु परीक्षण कर दुनिया को यह दिखा दिया कि भारत बिना किसी से डरे अपनी सुरक्षा के लिए भी प्रतिबद्ध है। भारत रत्न वाजपेयी ऐसे पहले गैर-काँग्रेसी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने एक बार अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया।
वह पहली बार वर्ष 1996 में प्रधानमंत्री बने थे, लेकिन बहुमत साबित करने से पहले ही उन्होंने लोकसभा में इस्तीफा देने की घोषणा कर दी थी। यह सरकार 13 दिन ही चल पाई थी। इसके बाद वह 19 मार्च 1998 को दुबारा प्रधानमंत्री बने लेकिन 13 महीने ही पद पर रह पाए। लेकिन, उसके बाद हुये चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत मिला और 13 अक्टूबर 1999 को वह एक बार फिर प्रधानमंत्री बने और मई 2004 के आम चुनाव तक पद पर रहे।
आज़ादी की लड़ाई में भाग
उन्होंने देश के इतिहास में पहली बार 24 दलों की गठबंधन सरकार चलाई। ग्वालियर में ही प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने वहाँ के विक्टोरिया कॉलेज (अब लक्ष्मीबाई कॉलेज) से स्नातक की डिग्री हासिल की। उसके बाद कानपुर के डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। अपने छात्र जीवन के दौरान ही वर्ष 1942 में उन्होंने ‘भारत छोड़े आंदोलन’ में भाग लिया।
इस बीच वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ गये थे और जीवन पर्यन्त इसके सदस्य रहे। प्रखर वक्ता वाजपेयी ने अपना करियर पत्रकार के रूप में शुरू किया था, लेकिन इस बीच 1951 में वह भारतीय जन संघ में शामिल हो गये और पत्रकारिता छोड़ दी। वर्ष 1968 से 1973 तक वह जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। वाजपेयी पहली बार वर्ष 1957 में उत्तर प्रदेश की बलरामपुर सीट से लोकसभा के लिए चुने गये। वह लोकसभा के लिए दस बार और राज्यसभा के लिए दो बार चुने गये जो अपने-आप में एक कीर्तिमान है।
भारत की आवाज बुलंद की
वर्ष 1975 में आपातकाल लगने के बाद देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं के साथ उन्हें भी जेल भेज दिया गया। वर्ष 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया और मोरारजी सरकार बनने पर वाजपेयी विदेश मंत्री बने। विदेश मंत्री के तौर पर उन्होंने कई वैश्विक सम्मेलनों में भाग लिया और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की आवाज बुलंद की।
पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा को हिन्दी में संबोधित कर उन्होंने देश का मान बढ़ाया। वर्ष 1980 में दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठने पर जनता पार्टी टूट गई और वाजपेयी तथा जनसंघ के अन्य पुराने सदस्यों ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। इसके बाद लालकृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता के शिखर तक पहुँचाया।
बन गए थे विपक्ष का पर्याय
लंबे समय तक देश की राजनीति में विपक्ष में रहते हुये वह विपक्ष का पर्याय ही बन गये थे। वह एक प्रखर वक्ता थे और उनकी सभाओं में श्रोता उनके भाषण के दौरान मंत्रमुग्ध हो जाते थे। उनके आलोचक भी उनकी वक्तृता शैली और वाक पटुता के प्रशंसक रहे हैं। लेकिन, वर्ष 2009 में वह काफी बीमार पड़ गये थे और उसके बाद से उनकी आवाज कभी नहीं सुनी गई।
एक कवि के रूप में भी वह काफी लोकप्रिय रहे। उनकी कविता ‘हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा’ उनके संघर्षशील व्यक्तित्व को दर्शाती है। राजनीतिक मामलों से जब भी समय मिलता तो संगीत सुनना और खाना बनाना उन्हें प्रिय था। देश के प्रति उनके नि:स्वार्थ समर्पण और साठ से अधिक वर्षों तक देश और समाज की सेवा करने के लिए वर्ष 2015 में उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया गया। वर्ष 1994 में उन्हें ‘सर्वश्रेष्ठ सांसद’ भी चुना गया था।
ये भी पढ़िए:
– जब पं. नेहरू ने वाजपेयी के लिए की प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी, जो सच हो गई
– अटलजी के निधन पर 7 दिन का राजकीय शोक, शुक्रवार को निकलेगी अंतिम यात्रा
– जब अटलजी के सामने फेल हो गईं दुनिया की खुफिया एजेंसियां, भारत ने कर दिया परमाणु परीक्षण