श्रीनगर/दक्षिण भारत। जम्मू-कश्मीर में पूर्व में लागू अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए के भेदभावपूर्ण विशेष प्रावधानों ने कई लोगों के जीवन को प्रभावित किया। इस संबंध में वर्षों पुराने एक मामले की मिसाल दी जा सकती है। एक एकल न्यायाधीश की पीठ ने जम्मू में सरकारी मेडिकल कॉलेज में प्रसूति और स्त्री रोग विभाग में सहायक प्रोफेसर के रूप में डॉ. रविंदर मदान की नियुक्ति को रद्द कर दिया था।
न्यायालय ने फैसला सुनाया कि डॉ. मदान ने दूसरे राज्य की महिला से शादी की है, जो यहां की स्थायी निवासी नहीं थीं, इसलिए वे सरकारी रोजगार के लिए योग्य नहीं थे।
अनुच्छेद 370 सिर्फ महिलाओं के लिए ही अनुचित नहीं था। इसी ने तय किया कि दलित वाल्मीकियों के हजारों वंशज, जिन्हें 1957 में पंजाब से सरकारी सफाईकर्मी के रूप में लाया गया था, को सफाईकर्मियों के अलावा और कोई सरकारी नौकरी नहीं मिले।
अनुच्छेद 370 ने होमोफोबिया को बढ़ावा दिया, चूंकि राज्य में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का नहीं बल्कि रणबीर दंड संहिता (आरपीसी) का पालन किया जाता था। उच्चतम न्यायालय ने आईपीसी की धारा 377 को हटा दिया था, वहीं यह आरपीसी में मौजूद रही। इसी प्रकार, सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार जैसे भारत सरकार द्वारा पारित महत्वपूर्ण कानून तत्कालीन राज्य में लागू नहीं होते थे।
इन तमाम कारणों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने अनुच्छेद 370 और 35ए के प्रावधानों को निष्प्रभावी करने के लिए उचित और संसदीय प्रक्रिया का उपयोग किया। दोनों सदनों में, इन अस्थायी प्रावधानों को निष्प्रभावी करने का समर्थन काफी हद तक द्विदलीय था।
अनुच्छेद 370 की अस्थायी प्रकृति कानून में ही इसकी परिभाषा से स्पष्ट है ‘जम्मू और कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी प्रावधान।’ 17 अक्टूबर, 1949 को संविधान सभा के एक भाग के रूप में संविधान के मसौदे पर बहस के दौरान, प्रारूप समिति के सदस्य श्री एन. गोपालास्वामी अयंगर ने तर्क दिया कि जम्मू और कश्मीर इस तरह के एकीकरण के लिए ‘अभी तक तैयार नहीं था। यहां हर किसी को यह उम्मीद है कि निश्चित रूप से जम्मू-कश्मीर भी उसी तरह के एकीकरण के लिए परिपक्व हो जाएगा जैसा कि अन्य राज्यों के मामले में हुआ है।’ संविधान सभा में किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि इस अस्थायी प्रावधान को हटाने में 70 साल लग जाएंगे।
अब अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को हटाए एक साल हो चुका है। आलोचक कहते हैं कि सरकार के पास दीर्घकालिक रणनीति नहीं है क्योंकि अनुच्छेद 370 को हटाना ही इसका एकमात्र अंतिम लक्ष्य था। कुछ बुद्धिजीवियों और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों ने कई बार आशंका जताते हुए लिखा है कि यह कदम उलटी प्रतिक्रिया देगा। सदन में भी इस संबंध में अड़चन थी; जबकि कुछ सदस्यों को लगा कि यह कश्मीर के लिए फिलिस्तीन में तब्दील होने के दरवाजे खोल देगा, अन्य ने महसूस किया कि इस कदम से राज्य खंडित हो जाएगा। सरकार की तैयारी इस तथ्य से स्पष्ट है कि प्रावधान के निरसन के दौरान और बाद में कोई रक्तपात नहीं हुआ था।
सरकार अनुच्छेद 370 के प्रावधान निष्प्रभावी बनाने को क्षेत्र में ठोस, परिवर्तनकारी, आतंक-मुक्त प्रगति की ओर अग्रसर करने वाली महत्वपूर्ण कुंजी के तौर पर देखती है। जम्मू-कश्मीर में कई जिलों को अब आतंकवादी मुक्त घोषित किया जा रहा है। आतंक विरोधी अभियानों को समन्वित तरीके से अंजाम दिया जा रहा है और स्थानीय निवासियों से समर्थन प्राप्त हो रहा है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के निवासी अब उन्हीं अवसरों की आकांक्षा कर सकते हैं, जो अन्य राज्यों के निवासियों के पास हैं। क्षेत्र के पूर्ण एकीकरण के लिए सरकार की प्रतिबद्धता नए कार्यक्रमों में दिखाई दे रही है, जो जारी किए जा चुके हैं।
केसर पर राष्ट्रीय मिशन के तहत 3,500 हैक्टेयर से अधिक भूमि का इसकी खेती के लिए कायाकल्प किया जा रहा है। कश्मीर में उगाए गए केसर के पास अब प्रतिष्ठित भौगोलिक संकेत टैग होगा जो इसे निर्यात बाजार में प्रमुखता देगा। सरकार सेब और अन्य फलों के अत्यंत-उच्च घनत्व वाली खेती को शुरू करने के लिए भूमि की पहचान करके और किसानों को प्रोत्साहित कर बागवानी को बढ़ावा दे रही है।
पर्यटन के बुनियादी ढांचे को मिशन मोड में अपग्रेड किया जा रहा है और बिजली, सड़क और पानी जैसे मुद्दों को युद्धस्तर पर सुलझाया जा रहा है। पर्यटन को और बढ़ावा देने के लिए, जम्मू-कश्मीर में 11 और लद्दाख में दो हवाईअड्डे उड़ान योजना के तहत हैं, जो एयरलाइनों को असेवित और कम सुविधा वाले गंतव्यों में परिचालन के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
आयुष्मान भारत स्वास्थ्य कार्यक्रम जो गरीबों के लिए अस्पताल में भर्ती खर्च को कवर करता है, अब सभी निवासियों के लिए उपलब्ध है। यहां तक कि कोविड-19 महामारी के दौरान, केंद्र ने क्षेत्र को संपूर्ण आवश्यक बुनियादी ढांचा और सामग्री सहायता प्रदान की है। जहां भारत ने प्रति 10 लाख लगभग 13,000 टेस्ट किए हैं, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख ने प्रति 10 लाख करीब 50,000 टेस्ट किए – राष्ट्रीय औसत से लगभग चार गुना।
सरकार मानती है कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख का एकीकरण तब तक पूरा नहीं होता जब तक कि जमीनी स्तर पर लोकतंत्र गहरा नहीं होता है। पिछले साल अक्टूबर में पंचायत समिति के चुनावों में रिकॉर्ड मतदान हुआ और ये हिंसा से मुक्त रहे, जबकि गैर-राज्य गुटों और आतंकवादी समूहों ने बहिष्कार किया था।
यह लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए किए जा रहे अधिक प्रयासों के लिए एक महत्वपूर्ण अग्रदूत है। हालांकि अनुच्छेदों के निरसन ने एक प्रारंभिक आत्मविश्वास-निर्माण घटक के रूप में कार्य किया है, कश्मीरी पंडित परिवारों के सुरक्षित आगमन और पुनर्वास को सुनिश्चित करने के लिए और भी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का 1952 का नारा ‘एक विधान, एक प्रधान, एक निशान’ अब साकार हो गया है। हालांकि, सरकार अपनी प्रशंसाओं पर रुकेगी नहीं और क्षेत्र द्वारा अपनी पूरी क्षमता हासिल करने तक अथक प्रयास करती रहेगी।