.. राजीव शर्मा ..
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। नवीन पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। बेंगलूरु के एक औद्योगिक क्षेत्र में उनका शानदार दफ्तर है लेकिन इस वक्त वे राजस्थान के सुदूर इलाके में स्थित ढाणी में हैं। यहां एक झोपड़ी में उनके मोबाइल फोन की घंटी बज रही है। वे अपने बॉस को रिपोर्ट भेज रहे हैं।
नवीन फोन पर अपने सहकर्मियों से नए प्रोजेक्ट से जुड़े कुछ बिंदुओं पर चर्चा करते हैं। इसी बीच उनके लैपटॉप पर अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और जर्मनी से क्लाइंट्स के ईमेल की बौछार हो जाती है, जिनके जवाब देने के लिए वे एक-एक कर सभी ईमेल पढ़ते हैं। पास ही एक पेड़ पर कौआ बैठा है, जिसकी कर्कश ध्वनि नवीन को कर्णप्रिय लग रही है, क्योंकि शहर की भीड़ और ट्रैफिक के शोर में ये आवाजें सुनें ज़माना बीत गया।
आधुनिक तकनीक से सुसज्जित यह झोपड़ी ही अब नवीन का दफ्तर या कर्मभूमि है। कमोबेश ऐसे नजारे अब दिखाई देने लगे हैं। इसे मुमकिन बनाया है- कोरोना से उपजे हालात, नई सोच और इंटरनेट के प्रसार के साथ उसकी ताकत ने। जब देश में कोरोना महामारी ने दस्तक दी तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ का कल्चर तेजी से बढ़ा। इससे कुछ कदम आगे बढ़ते हुए, अब ‘वर्क फ्रॉम विलिज’ यानी ‘गांव से काम’ की संस्कृति का जिक्र भी सुनाई दे रहा है।
हालांकि, भारत में इसे अभी महज शुरुआत ही कहा जाएगा लेकिन इसने संभावनाओं के दरवाजे जरूर खोल दिए हैं। करीब 10 साल पहले कामकाज के जो तरीके भारतीय परिवेश में संभव नहीं लगते थे, इंटरनेट के प्रसार ने उन्हें काफी आसान और लोकप्रिय बना दिया। साथ ही नई संभावनाओं को लेकर आशा की किरण भी जगा दी, जो पहले सिर्फ कल्पनाओं तक सीमित थीं।
इंटरनेट ने मायूस नहीं होने दिया
सवाल है, ‘गांव से काम’ का यह मॉडल युवाओं को इतना क्यों भा रहा है? अगर मौजूदा हालात की बात करें तो इसका जवाब कोरोना महामारी से उपजे हालात में छिपा है। संक्रमण के खतरे को कम करने के लिए युवा अपने गांवों को लौटने लगे। लेकिन इंटरनेट के अस्त्र ने उन्हें मायूस नहीं होने दिया। खासतौर से वे क्षेत्र जहां डिजिटल तौर-तरीकों से काम हो सकता है और रोज दफ्तर जाना जरूरी नहीं होता।
यूरोप को मिला फायदा
इन बिंदुओं ने ‘गांव से काम’ की अवधारणा को मजबूत किया। हालांकि यूरोप में इसका मॉडल पहले से ही मौजूद है। वहां मुक्त आवागमन और लचीले नियमों के कारण लोग महानगरों के बजाय कस्बों और गांवों में रहना पसंद करते हैं। यही नहीं, कुछ लोग तो पड़ोसी देशों में रहकर इंटरनेट के जरिए दफ्तर का काम करते हैं। इससे वे न केवल अपने स्वास्थ्य को बेहतर बना पाते हैं, बल्कि बचत भी कर पाते हैं, चूंकि ग्रामीण जीवन जेब के लिए फायदेमंद होता है।
मेरा गांव-मेरी रोटी
राघव का ताल्लुक उत्तराखंड के एक गांव से है। वे चेन्नई की आईटी कंपनी में सॉफ्टवेयर डेवलपर हैं। वे साल 2008 में उच्च शिक्षा के लिए इस शहर में आए थे। हाल में कोरोना के बढ़ते मामलों के बाद जब वे अपने गांव पहुंचे तो उन्हें अपनी नौकरी की चिंता सता रही थी लेकिन इंटरनेट ने उनकी सबसे बड़ी चिंता को दूर कर दिया। उन्होंने एक छोटी कोठरी में अपना सामान जमाकर दफ्तर बना लिया, जहां पूरी लगन से काम करते हैं। वे मोबाइल फोन, ईमेल वॉट्सऐप के जरिए अपने बॉस और सहकर्मियों के संपर्क में रहते हैं। अपने खेतों में उगे अन्न की रोटी खाते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य बेहतर हो चला है। अब मकान किराया भी नहीं देना पड़ता, जो उनके लिए बड़ी बचत है।
लैपटॉप में समाया संसार
कुछ ऐसी ही कहानी अरुणाचल प्रदेश के एक गांव की निवासी ग्रेसी की है। वे पिछले 12 साल से दिल्ली के एक पब्लिकेशन हाउस में काम करती हैं। कोरोना महामारी ने उन्हें दूसरे विकल्पों पर विचार करने के लिए मजबूर कर दिया। अब अपने गांव में लैपटॉप पर उसी तरह काम करती हैं, जैसे पहले दफ्तर में करती थीं। हां, गांव से काम के इस तरीके ने उन्हें अपनी जड़ों से जोड़ा है। वे कोरोना को लेकर यहां खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं। अब उन्हें मकान किराया, बस किराया, आवागमन के दौरान भीड़ जैसी दिक्कतें नहीं सतातीं।
.. मगर राह नहीं आसान
‘गांव से काम’ की यह अवधारणा आकर्षक और असरदार भले ही लगे मगर इसकी राह आसान नहीं है। शहरों और खासतौर से बड़े शहरों का मोह आसानी से नहीं छूटता। ऐसे में हुनरमंद युवाओं को दोबारा गांवों की ओर लाने में कई मुश्किलें हैं। इसके लिए जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक मुहिम चलाई जाए। केंद्र और संबंधित राज्यों की सरकारें भी बांहें पसार कर उनका स्वागत करें। मोबाइल फोन और इंटरनेट जैसी सुविधाओं को सुदूर गांवों तक पहुंचाया जाए। चीन इससे मिलते-जुलते फॉर्मूले को आजमा चुका है, जिसके नतीजे काफी उत्साहजनक रहे। यह कदम ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगा। साथ ही, गांव का हुनर गांव को संवारेगा।