कहानी
– दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’
मो. नं. 73791002661
वे तीन थे-दो नई उम्र के छोकरे और एक अधेड़-सा आदमी…। रात के गहराते अँधेरे में वे सहमे से आगे बढ़ रहे थे। इन पर डर इस कदर तारी था कि इनकी कनपटियॉं दहक रही थीं, सर्दियों की रात में भी माथे पर पसीना चुहचुहा रहा था और कदमों में लड़खड़ाहट आ टिकी थी..। रह-रहकर दस मिनट पहले का मंजर उनकी आँखों के आगे कौंध जाता और वे सिहर उठते…।
वे दिहाड़ी मजदूर थे। आज छत पड़ने का दिन था, लिहाजा डबल मजदूरी के साथ खाना-पीना और दारू मालिक की तरफ से…। शाम के धुँधलके में वापसी के वक्त खुशी और बादशाहत से इतरा रहे थे। दोनों छोकरों के लौंडपना पर अधेड़ भी पूरा मजा ले रहा था, आखिर उसके पेट में भी गरम मसाले की गमक वाले खाने के साथ देशी ठर्रा लहरा रहा था। तफरी काटते हुए वे मकनपुर गॉंव के करीब नलकूप तक आ गए थे।
वहॉं बल्ब जल रहा था, लेकिन कटहल के पेड़ की छाया से उजाला छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरा था। तभी पचास मीटर आगे गॉंव वाले खड़ंजा से वह इस चकरोड पर आ गई। बाइस-तेइस साल की, पटियाला सूट पर कार्डिगन डाले अल्हड़ युवती के हाथों में मोबाइल रोशन था…। वह तेज कदमों से चलती बीस-बाइस मीटर आगे बढ़ी होगी, उसी समय एक छोकरा बमक उठा- ‘‘हाय… हाय… चॉंद का टुकड़ा… एक रोज आजा मेरी गली में…।’’
अधेड़ मजदूर ने डपटा-‘‘बदलुआ..! होश में है?’’
‘‘क्या हो गया रम्मू काका ?’’ कहते हुए वह गफलत में एक ईंट से ठोकर खाकर इस अंदाज में लड़खड़ा के आगे बढ़ा, जैसे सामने से चली आ रही लड़की पर झपट पड़ा हो…। लड़की ने उसी क्षण मोबाइल की रोशनी उसकी तरफ घुमा दी। सामने वहशी शक्ल और सीमेन्ट के धब्बों भरे लिबास वाला आदमी उसे खतरनाक-सा लगा। वह बे-साख्ता चीख पड़ी-‘‘हाय मम्मी… बचाओ…बचाओ..।’’
गॉंव वहॉं से बमुश्किल सौ मीटर…। फिर रात में आवाज भी गूँजती है। किसी ने तत्काल कहा-‘‘हे कौन… जल्दी से दो-चार लोगों को लेकर आओ, उधर कोई चिल्ला रहा है, मैं आगे बढ़ के देखता हूँ…।’’
शम्भू की अनुभवी खोपड़ी खतरा भॉंप चुकी थी…। ठाकुर, यादव और खॉं साहब जैसे जबरा लोगों का गॉंव…। अभी चार-छह लोग आ धमकेंगे और …. वह तुरन्त लड़की के सामने घुटनों पर आ गया। सिर का अँगोछा उसके पैरों पर रख दिया और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा- ‘‘बबुआइन रानी, हम छोटी जात के हैं। हमारी बुद्धि छोटी है। बात ओछी है, आपके यहॉं मजूरी-धतूरी करके परिवार पालते हैं। अभी चार डण्डा पड़ा नहीं कि खटिया पकड़ लेंगे, मजूरी बंद और बच्चों का भूख से बिलबिलाना शुरू…।’’
‘‘कौन गोहार लगा रहा था, हम पहुँच गए…।’’-कहता कोई मोड़ के पास पहुँचने वाला था। उसके पीछ की अस्पष्ट-सी बोलचालभर का मतलब था कि कुछ पीछे और लोग भी थे..।
शम्भू हड़बड़ी में खड़ा हो गया, लेकिन दया की भीख मॉंगता रहा-‘‘बबुआइन रानी, आपकी जात बड़ी है। समझदार हैं। यह छोटमनई है, धिंगरपन कर रहा था। माफ कर दें बिटिया, हमें बचा लें…।’’
उसकी आवाज में गजब की पत्थर को मोम बना देने वाली दीनता भरी याचना थी। घृणा, डर, अपमान और क्रोध के मिले-जुले भावों से भरी युवती पर इसका असर पड़ा। वह अन्दर से बर्फ की तरह पिघलने लगी…। तभी डण्डा लिये टार्च की रोशनी करता एक आदमी आ गया। लड़की से मुखातिब हुआ-‘‘क्या बात है ? क्यों चिल्ला रही थी…?’’
देखते-देखते चार लोग और आ गए। अठारह-उन्नीस साल का एक लड़का आगे आया-‘‘दीदी आप..! अकेली यहॉं..?’’
‘‘रूपेश वो क्या है कि…’’ कहते हुए लड़की ने डण्डा वाले आदमी की तरफ रुख किया-‘‘काका ! हम लड़कियॉं सुबह-शाम शिवाला तक दौड़ लगाती हैं। आज घर से निकलने में देर हो गयी। पता चला- रूबी, चन्दा और राधा अभी-अभी निकली हैं। मैंने सोचा, आगे बढ़ के देखूँ…। मैं खड़ंजा से मुड़कर इस तरफ बढ़ी, तभी….।’’
लड़की ने अपनी बात रोक दी और चकरोड के दोनों तरफ खड़े गन्ने के खेतों को देखने लगी…। शम्भू, बदलू और उसके हमजोली का डर से बुरा हाल हो गया…। पहले दिल की धुकधुकी तेज हुई, फिर कान के आसपास जलन… रूपेश के साथ आने वालों में से एक ने पूछा-‘‘फिर क्या हुआ ?’’
‘‘यह कुछ कहे क्या ?’’ उन तीनों की तरफ उँगली दिखाते हुए दूसरे तावगर नौजवान ने सख्त लहजे में तस्दीक किया।
‘‘असल में भैया बात यह हुई कि हम दसेक कदम इधर चले होंगे, तभी सामने से जंगली सुअर झपट पड़ा…। बस मेरी चीख निकल गयी…। यह काका और भइया लोग अगर जान पर खेलकर सुअर को खदेड़ न दिये होते तो हमला बोल ही चुका था…।’’- लड़की ने नई कहानी गढ़ के मामले की गर्माहट निकाल दी।
गॉंव के लोगों ने एक स्वर से लड़की को सुअर, नीलगाय, लकड़बग्घा, शराबी, लफंगा, मवाली वगैरह का हवाला देकर रात में अकेले न निकलने की हिदायत के साथ घर लौटा दिया। फिर मजदूरों की औपचारिक शुक्रिया अदायगी के बाद सब अपने-अपने घर लौटने लगे…।
मजदूर एक बड़े हादसे से बच गये थे, लेकिन उन पर एकबारगी दहशत का जो पहाड़ टूट पड़ा था, उससे उबरने में टाइम लगा…। धीरे-धीरे यह लोग प्रधानमन्त्री ग्रामीण सड़क पर आ गए थे। डेढ़-दो सौ मीटर आगे जाने पर इनकी बस्ती की पगडण्डी निकलती है। यहॉं से मकनपुर की रोशनियॉं धुँधली-सी दिख रही थीं। इनके गुम हवास वापस आने लगे थे, डर भी जाता रहा। इतनी देर से सुन्न पड़े बदलू का दिमाग फिर खुरपेंच में जुट गया। उसने साथ चलते हमजोली मजदूर से कहा-‘‘फत्ते तिरिया चरित्तर का नमूना देखे !’’
आगे बढ़ते शम्भू ने सुन लिया। वह पलटकर गुस्से से भरा इनके पास आया। दोनों का कन्धा पकड़ के झकझोरा-‘‘कुकुर आदमी, चार-चार डण्डा खा के लँगड़ाते-कराहते हुए नहीं चल रहे, तो उसी की बदौलत… वह देवी थी हरामियों देवी !… उसके किए-धरे को तिरिया चरित्तर से जोड़कर छोटा मत करो… समझे !’’ इसके बाद शम्भू गन्दगी से दूर भागने के अन्दाज में दनदनाता हुआ गॉंव की पगडण्डी की तरफ बढ़ गया।