नई दिल्ली/भाषा। कोविड-19 और उसके नए स्वरूप ओमीक्रोन से संक्रमण के बढ़ते मामलों को देखते हुए निर्वाचन आयोग ने विधानसभा चुनाव वाले पांच राज्यों में 22 जनवरी तक प्रत्यक्ष रैलियों और रोड शो पर रोक सहित कई अन्य पाबंदियां जारी रखी है। लिहाजा, डिजिटल माध्यमों से रैलियों और प्रचार के अन्य तौर तरीकों को लेकर राजनीतिक दलों में इस बार ज्यादा जोर आजमाइश हो रही है। इन्हीं सब मुद्दों पर ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज’ (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार से पांच सवाल’ और उनके जवाब।
सवाल: रैली, रोड शो सहित कई अन्य पाबंदियां जारी रहने और डिजिटल मंचों पर राजनीतिक जोर आजमाइश की मजबूरी। कैसे देखते हैं आप आयोग के फैसले और चुनावों को?
जवाब: यह फैसला परिस्थितियों के मद्देनजर लिया गया है। जिस तरीके से कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं, निर्वाचन आयोग के लिए यह फैसला लेना लाजिमी था। कोरोना की यह रफ्तार बनी भी रही तो मुझे लगता है कि आखिर में निर्वाचन आयोग इन राज्यों में कुछ छूट देगा क्योंकि कुछ न कुछ प्रत्यक्ष रैलियों का महत्व होता है। कोरोना संबंधी कुछ सख्त प्रोटोकॉल जरूर होंगे, मसलन मास्क का उपयोग, उचित दूरी का पालन और सैनिटाइजेशन की व्यवस्था। कुल मिलाकर मुझे लगता है कि आखिरी के पांच-दस दिनों के लिए आयोग को कुछ छूट देनी पड़ेगी।
सवाल: डिजिटल रैलियों पर कुछ दलों ने आपत्ति जताई है। नफे-नुकसान को लेकर कई सवाल भी उठ रहे हैं। आपकी क्या राय है?
जवाब: एक बात तो जरूर है कि जितने दिन तक प्रत्यक्ष रैलियों और रोड शो जैसी पाबंदियां लागू रहेंगी और डिजिटल माध्यमों का सहारा लिया जाएगा, बड़ी पार्टियों को फायदा होगा तथा छोटी पार्टियों को नुकसान होगा। छोटी पार्टियां इस मंच (डिजिटल प्लेटफार्म) के लिए तैयार नहीं थीं। बड़ी पार्टियों के पास प्रचार के कई सारे मंच पहले से ही है और वह इनका उपयोग भी करती रही हैं। ऐसे में एक बराबर प्रचार का मौका सबको नहीं मिल सकेगा।
लोग यह कह सकते हैं कि पाबंदियां तो सभी दलों के लिए है लेकिन जमीनी सच्चाई तो यही है कि छोटी पार्टियां के लिए ‘लेवल प्लेयिंग फील्ड’ (समान अवसर) नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर ‘ऑनलाइन क्लासेस’ को ही ले लिजिए। कहने को तो ‘ऑनलाइन क्लासेज’ सभी छात्रों के लिए हैं लेकिन वास्तव में यह गरीब व पिछड़े वर्ग के छात्रों के साथ भेदभाव है। संपन्न परिवार के बच्चों के पास तो मोबाइल, इंटरनेट और लैपटॉप जैसी सारी सुविधाएं हैं लेकिन गरीब बच्चों के पास यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। कुछ इसी प्रकार की स्थिति छोटे दलों की हो जाएगी।
सवाल: अगर यह स्थिति है तो वर्चुअल रैलियों के कारण कहीं ऐसा तो नहीं जनता के असल मुद्दे पीछे छूटे जाएंगे?
जवाब: जनता के असली मुद्दे पीछे छूटने की संभावना भी दिखती है। डिजिटल माध्यम से जब संवाद होता है या प्रचार होता है तो वह एकतरफा संवाद होता है जबकि रैलियां होती है लोग सड़कों पर निकलते हैं और विभिन्न तरीकों से वह अपनी आवाज भी बुलंद करते हैं। नेता भी जनता से मिलते हैं तो उन्हें असली मुद्दों का पता चलता है। भले ही वह उसे गंभीरता से लें या ना लें लेकिन हकीकत से सामना होता है।
डिजिटल रैली तो ‘वन वे ट्रैफिक’ (एक तरफा संवाद) है। जो जमीनी मुद्दे हैं, जो वास्तविक मुद्दे हैं, उनका उन इलाकों में ही जाकर पता चलता है जब आप रैली करते हैं, लोगों से मिलते हैं। रैली में भीड़ है कि नहीं है उसका भी अर्थ समझ में आता है। इन सब चीजों का अभाव तो जरूर दिखाई देगा। इसकी कमी भी दिखेगी। डिजिटल माध्यम से चुनाव प्रचार का असली मुद्दों पर असर तो पड़ता ही है।
सवाल: गांवों व दूरदराज के क्षेत्रों में इंटरनेट सीमित है, महिलाओं का एक बड़ा तबका इसका सीमित उपयोग करता है। इससे चुनावों पर कितना असर होगा?
जवाब: इसका बहुत प्रभाव पड़ेगा। ऐसा समझा जाता है कि घर-घर मोबाइल, स्मार्टफोन और इंटरनेट है लेकिन यह सच्चाई नहीं है। मोबाइल में डेटा (इंटरनेट पैक) सीमित होता है। ग्रामीण इलाकों में 15 प्रतिशत ही ऐसे लोग हैं जिनके पास यह सब सुविधा होती है। वर्ष 2019 के चुनाव में सीएसडीएस ने एक सर्वे किया था। उसमें हमने देखा था कि जो सोशल मीडिया पर जो उपस्थिति है, वह चाहे व्हाट्सएप, फेसबुक हो चाहे टि्वटर हो ... इसमें ऊंची जाति के लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है।
उससे कुछ कम अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और फिर दलित हैं। आदिवासी तो और भी कम हैं। आंकड़े बताते हैं कि गरीब, पिछड़े समुदाय के लोग सोशल मीडिया पर कम हैं। उनके पास मोबाइल फोन और इंटरनेट कम हैं। यह तो एक प्रकार से भेदभाव ही है। लिहाजा बहुत असर होगा। चुनाव को प्रभावित करने वाला असर होगा।
सवाल: नेता से मतदाता और सभी राजनीतिक दलों के लिए समान अवसर हो, इसके लिए आपके हिसाब से क्या किया जाना चाहिए?
जवाब: ‘लेवल प्लेयिंग फील्ड’ सबके लिए हो, इसके लिए निर्वाचन आयोग को कुछ कदम उठाने चाहिए। सोशल मीडिया का नियमन तो बड़ा मुश्किल है लेकिन आयोग चाहे तो दूरदर्शन और निजी चैनलों को इस दायरे में ला सकता है। कुछ ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है कि सभी नेताओं और दलों को बराबरी का अवसर मिले। उम्मीदवारों को या पार्टी के नुमाइंदों के एक समय सीमा में अपनी बात कहने का प्रावधान होना चाहिए। दूरदर्शन पर तो यह पहले से ही होता रहा है। ऐसे मंचों का इस्तेमाल होना चाहिए था, जिससे कुछ ‘लेवल प्लेयिंग फील्ड’ तैयार किया जा सकता था।
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