* रमेश मेहता के वाट्सएप और विनोद सबदड़ा के आडियो मैसेज से प्रेरित गरीब, हुए बेहद परेशान
* हजारों को बिन बुलाए मेहमान की तरह निराश लौटना पड़ा, क्योंकि उनको बुलाया था ही नहीं
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। कोई भी गैरजिम्मेदाराना वाट्सएप मैसेज या आडियो मैसेज किसी के लिए भी कितनी परेशानी पैदा कर सकता है, यह उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जो रविवार को सुबह 7 बजे ही बेंगलूरु पैलेस के निर्धारित गेट पर इस आशा से पहुंच गए कि अब उनका अपने गांव जाने का सही समय आ गया है और सरकार ने उनके लिए ट्रेन की व्यवस्था की है। ये सब वे लोग थे जो राजस्थान मूल के हैं और बेंगलूरु में अपना छोटामोटा काम या नौकरी करते हैं तथा कोरोना वायरस के कारण निर्मित भय और हालात से घबराकर जल्दी से जल्दी अपने गांव लौटना चाहते हैं।
उन्हें मिले एक वाट्सएप मैसेज ने एक बार उनके चेहरे पर दुनिया जहान की मानो सारी खुशियां ला दीं और दूसरे ही पल वह खुशियां काफुर हो गईं जब उन्हें पता लगा कि ट्रेन की व्यवस्था तो सरकार ने जरूर की है परंतु वह उन लोगों के लिए है जिनके नाम और फोन नंबर पहले ही सरकार के पास पहुंच चुके थे। किसी फोरवार्ड मैसेज से आने वालों के लिए नहीं।
ये भ्रमित हुए कैसे?
बेंगलूरु में ऐसे कामगारों की कोई कमी नहीं है जो अपना व अपने परिवार का पेट पालने के लिए परिवार और बच्चों से दूर यहां रह कर काम कर रहे हैं। इनमें से कुछ को तो काम से इसलिए छुट्टी मिल गई कि उनके ठेकेदारों का भी काम रुक गया और कुछ ने कोरोना और लाकडाउन से घबराकर अपने बाल बच्चों के पास पहुंचने का मन बना लिया। ये लोग कई दिनों से गांव जाने का हर संभव जुगाड़ कर रहे थे परंतु लगातार सख्त होते लाकडाउन में यहीं रहने को बाध्य थे। साथ साथ यहां वहां प्रयास भी कर रहे थे कि अगर कोई बस या ट्रेन सुविधा मिली तो वे निकल लेंगे।
रविवार रात को राजस्थान संघ कर्नाटक नामक संगठन के संस्थापक चेयरमैन रमेश मेहता के नाम से एक मैसेज वायरल हुआ कि अगले दिन यानी सोमवार 4 मई को एक ट्रेन राजस्थान के लिए रवाना होगी। इसके लिए पैलेस ग्राउंड के त्रिपुरावासिनी में सब यात्रियों की जांच होगी और फिर सरकार उन्हें ट्रेन से जयपुर भेजेगी। इसके बाद एक आडियो मैसेज एक अन्य “सामाजिक कार्यकर्ता” विनोद सबदड़ा ने भी इसी आशय का प्रसारित किया तो लोगों को विश्वास हो गया कि दो दो मैसेज आ गए हैं तो सूचना सही ही होगी। इस मैसेज में मजदूरों, कामगारों और जो भी राजस्थान जाना चाहें, उनको निर्धारित स्थान पर पहुंचने का आग्रह किया गया था। लाकडाउन से प्रभावित प्रवासी राजस्थानियों का ऐसा वर्ग खुशी से फूला नहीं समाया और जैसे तैसे त्रिपुरावासिनी पहुंचने लगा। बस, लाकडाउन के कारण आटो आदि की व्यवस्था तो है नहीं, यह सबको पता ही है, इसलिए कुछ साथी तो दो दो मिलकर अपनी टैक्सी करके पैलेस ग्राउंड पहुंचे। इसके लिए एक से डेढ हजार रु तक उन्हें देने पड़े।
सूचना तो सही थी लेकिन दोनों मैसेज गलत थे
राजस्थान ट्रेन भेजे जाने की सूचना तो सही थी परंतु दोनों मैसेज से लोग भ्रमित हुए क्योंकि वह ट्रेन पहले से जिन लोगों ने सरकार के पास किसी न किसी माध्यम से अपने नाम और फोन नंबर अंकित करा दिए थे, उनके लिए थी। सरकार की तरफ से मैसेज भी उन लोगों तक ही भेजा गया था कि वे निर्धारित स्थान पर पहुंचें ताकि उनकी जांच तथा अन्य औपचारिकताएं पूरी कर उनकी रवानगी की व्यवस्था की जाए। उस मूल मैसेज में सरकारी सूचनानुसार फोन नंबर भी दिया गया था। अगर किसी को कोई संशय हो तो वह जानकारी ले सके। वह मैसेज फोरवार्ड करने के लिए था नहीं, केवल उन्हें भेजा गया था जिन्हें सरकार को भेजना था।
श्रेय लेने की कोशिश ने बिगाड़ा खेल
सरकार का या सरकार द्वारा अधिकृत एजेंसी का जो मैसेज था वही आगे फोरवार्ड किया जाता तो कोई संशय पैदा नहीं होता। लोगों को परेशानी भी नहीं होती। केवल वही लोग पैलेस पहुंचते जिन्हें बुलाया गया था। परंतु मैसेज भेजने वालों के श्रेय लेने के लोभ ने पहले से ही आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को पैलेस तक आने जाने के टैक्सी किराये की चपत और लगवा दी। हजारों की संख्या में लोग बिन बुलाए मेहमान की तरह पैलेस पहुंचे और घंटों तक लाइन में खड़े रहने के बाद अपना सा मुंह लेकर लौट गए। उनकी हालत कंगाली में आटा गीला वाली थी। पहले ही परेशान थे, ऊपर से बनरघट्टा रोड़, कोरमंगला, इलेक्ट्रॉनिक सिटी, व्हाइटफील्ड जैसे दूर दराज के इलाकों में फंसे हुए थे, वहां से आने और वापस जाने का टैक्सी का किराया और लग गया। ट्रेन उन लोगों को ले गई जिन्हें ले जाना था। यानी कि जिनके लिए मैसेज था। ये लोग यहीं रह गए जो रमेश मेहता और विनोद सबदड़ा के बुलावे पर पहुंचे थे।
क्या गलती का होगा अहसास?
दोनों “समाजसेवियों” ने अपने मैसेज में कोई फोन नंबर भी नहीं दिया जबकि सरकारी सूचना में फोन नंबर था। इससे ऐसा लगता है कि लोगों को यह दर्शाने का प्रयास किया गया जैसे ट्रेन इन्हीं दो महानुभावों के प्रयास से भेजी जा रही है। उन्हें शायद इस बात का अहसास अभी भी नहीं है कि जो लगभग तीन हजार लोग निराश लौटे, उन पर क्या बीती होगी। उनकी भावनाएं भी आहत हुई, उन्हें निराशा हुई और उनके पैसे भी लग गए जबकि उनकी कोई गलती नहीं थी। उन जरूरतमंदों की शायद यही गलती थी कि उन्होंने इन दो नामों पर आंख बंद करके विश्वास कर लिया और अपने स्थान से सामान लेकर निकल पड़े। इनमें महिलाएं और बच्चे भी थे।
इस घटना से दो बातें साफ हो जाती हैं कि एक तो हर किसी मैसेज को बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए तथा समझदार लोगों को, सरकारी कामकाज और उनकी व्यवस्था के तहत होने वाले काम में बिना मतलब “लाडो की बुआ” नहीं बनना चाहिए।