हासन। जिले के मलनाड इलाके में रहनेवाले अधिकांश किसान अपने खेतों में धान की स्थानीय नस्लों की बुआई कर रहे हैं्। इन्हें राज्य सरकार की एक खास पहल ’’खेतों से बीज’’ का फायदा मिल रहा है। साथ ही कृषि विभाग भी उन्हें जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। जिले के ७०० किसान यहां जैविक रूप से धान की स्थानीय प्रजातियों की खेती कर रहे हैं। बताया जाता है कि वह अपनी आय से भी काफी संतुष्ट हैं। इन्हें जैव कृषकों के रूप में प्रमाणपत्र भी मिल चुका है। उनके उत्पाद की मांग बाजार में लगातार ब़ढती जा रही है। साथ ही फसलों की कटाई के बाद खेतों में ही विकसित किए जानेवाले बीजों के खरीददारों की संख्या भी दिनों दिन ब़ढती जा रही है। भूमि सतत विकास सोसाइटी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) जयप्रसाद बेल्लेकेरे ने बताया, ’’वर्ष २००७ में जब हमने खेतों में काम शुरू किया तो उस समय जिले के मात्र १०० एक़ड खेतों में धान की पारंपरिक स्थानीय प्रजातियों की खेती होती थी। कुछ गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के साथ कृषि विभाग ने हासन जिले के पश्चिम घाट क्षेत्र स्थिल सकलेशपुर और आलुर तालुकों के साथ ही कोडगु जिले के सोमवारपेट में जैविक खेती को प्रोत्साहित करना शुरू किया। उस दौरान अधिकांश किसान संकर और अन्य उन्नत किस्म के धान की खेती किया करते थे। कृषि विभाग और एनजीओ के सतत प्रयासों से किसानों को स्थानीय और पारंपरिक धान की नस्लों में दिलचस्पी हुई। आज स्थानीय धान प्रजातियों की खेती तीनों तालुकों के लगभग १५०० एक़ड कृषि भूमि पर हो रही है।’’उल्लेखनीय है कि राजामुडी धान में उच्च चिकित्सकीय गुण होते हैं। मधुमेह यानी डायबिटीज के इलाज में इसे काफी सफल माना जाता है। वहीं, नवारा धान में भी औषधीय गुण होते हैं, जबकि गमसाला की खुशबू पूरे राज्य में मशहूर है। इनके साथ ही धान की अन्य लोकप्रिय प्रजातियों में रत्ना चू़डी, नेट्टी बिलक्की, होलेसलु चिप्पुगा, केंपक्की (लाल चावल) और कप्पू अक्की (काला चावल) भी एक समय काफी लोकप्रिय हुआ करते थे। अब स्वास्थ्य के बारे में जागरूक शहरी और ग्रामीण आबादी दोबारा इन पारंपरिक धान की किस्मों की अधिक खरीददारी कर रही है। सकलेशपुर तालुक के येडेहल्ली में आठ एक़ड खेत पर होलेसलु चिप्पुगा किस्म के धान की खेती करने वाले किसान वाईसी रुद्रप्पा ने कहा, ’’उबालकर खाने के लिए होलेसलु चिप्पुगा धान की सबसे बेहतरीन प्रजातियों में से एक है। पिछले वर्ष मैंने यह धान ४,५०० रुपए प्रति क्विंटल की दर से बेची थी। मेरी लगभग पूरी उपज महाराष्ट्र के सांगली और कर्नाटक के दावणगेरे में बिक गई थी।’’ आलुर, सकलेशपुर और सोमवारपेट तालुकों में भारी बारिश हुआ करती है। यह बारिश पारंपरिक धान की प्रजातियों के लिए अनुकूल माहौल तैयार करती है। भूमि सतत विकास सोसाइटी के जयप्रसाद बेल्लेकेरे ने बताया, ’’धान की पारंपरिक प्रजातियों की उपज में चार महीनों या १५०-१६० दिनों का समय लगता है। यह प्रजातियां हासन जिले के किसानों के लिए आदर्श हैं। हालांकि उन्नत किस्म के धान की प्रजातियों से उपज मिलने में कम समय लगता है, लेकिन उन्नत और संकर प्रजातियों की खेती से अन्य पारंपरिक किस्म के धान की खेती में रुकावटें पैदा होती हैं।स्थानीय और पारंपरिक धान की मांग ब़ढती देखकर हासन और कोडगु जिलों के किसानों ने अपनी उपज के विपणन के लिए एक फेडरेशन गठित किया है। वाईसी रुद्रप्पा इस फेडरेशन के अध्यक्ष हैं। उन्होंने बताया कि फेडरेशन में ३,५०० किसान पंजीकृत किए गए हैं। राज्य कृषि विभाग और नाबार्ड जैविक फसलों की खेती को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इन दोनों की मदद से जिले में किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) की स्थापना की गई है। नाबार्ड के जिला विकास प्रबंधक वीजी भट ने बताया, ’’नाबार्ड जैविक कृषि को प्रोत्साहित करता आ रहा हैफ। हमने एफपीओ को ९ लाख रुपए की मदद उपलब्ध करवाई है। इसका नतीजा काफी प्रभावशाली रहा है।’’
परंपरागत फसलों की खेती में दिलचस्पी ले रहे हैं हासन और कोडगु के किसान
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