— प्रभुनाथ शुक्ल —
लोहिया के समाजवाद को मुलायम सिंह यादव संजो नहीं पाए। दो साल पूर्व सत्ता को लेकर परिवारवाद की जंग की वजह से सुलगता बारूद आखिर फट पड़ा और समाजवादी पार्टी शिवपाल सिंह यादव के बगावती तेवर के बाद दो फाड़ हो गयी। हालांकि जिस तरह पार्टी पर अधिकारवाद को लेकर लड़ाई चल रही थी उससे यह तस्वीर साफ थी कि विभाजन तो तय हैं। मुलायम सिंह यादव ताल ठोंक कर खुद को लोहिया के समाजवाद का असली उत्तराधिकारी मानते थे, लेकिन परिवारवाद की जंग में वह इस तरह झुलसे कि खुद के अस्तित्व को नहीं बचा पाए।
हालांकि कहा तो यह जाता है कि इस पूरे महाभारत के पीछे असली पटकथा मुलायम सिंह यादव के हाथों लिखी गयी। फिलहाल पर्दे की बातें जो भी हों, लेकिन परिवार की खोल में छुपा समाजवाद ताश के पत्तों की तरह बिखर गया। मुलायम सिंह यादव के सियासी लक्ष्मण शिवपाल सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी को अलविदा कह समाजवादी सेक्युलर मोर्चे का गठन कर लिया।
लोकसभा चुनाव वर्ष 2019 के पहले समाजवादी पार्टी में पारिवारिक जंग की वजह से बिखराव अखिलेश यादव के लिए शुभ संकेत नहीं है। एक तरफ उन्होंने राज्य से भाजपा का सूपड़ा साफ करने के लिए धुर विरोधी बसपा सुप्रीमो और राजनीतिक बुआ मायावती से जहां गठबंधन करने का ऐलान किया है, जबकि दूसरी तरफ अपने परिवार को ही संगठित करने में नाकाम दिखते हैं।
लोकसभा चुनाव में सपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। हालांकि शिवपाल सिंह यादव को भी मुख्यधारा से अलग होकर ज्यादा हासिल होने वाला नहीं है। समाजवादी पार्टी में शिवपाल सिंह यादव की अच्छी पकड़ मानी जाती है। कहा जाता है कि पार्टी का एक बहुत बड़ा वर्ग शिवपाल सिंह यादव के साथ है। उन्होंने कहा है कि पार्टी में उन्हें दो साल से हाशिये पर रखा गया था। लगातार पार्टी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की तरफ से उनकी और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की जा रही थी, जिसकी वजह से मजबूर हो कर समाजवादी पार्टी को अलविदा कहा।
चाचा शिवपाल सिंह के फैसले पर अखिलेश यादव ने भी अपनी प्रतिक्रिया देते हुए चुटकी भरे अंदाज में कहा कि मैं भी नाराज हूं, कहां जाऊं। इसके पीछे उन्होंने भाजपा की साजिश बताया है और यह भी कहा कि चुनाव नजदीक हैं, इस तरह की बातें आपको अधिक देखने को मिलेंगी। लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि सपा को इस तरह का बिखराव कमजोर करेगा। राजनीतिक लिहाज से यूपी में सपा एक मजबूत दल है, खास वर्ग पर उसकी अच्छी पकड़ है।
राजनीतिक लिहाज से सबसे खास बात यह है कि शिवपाल सिंह यादव आखिर समाजवादी पार्टी छोड़ कहां जाएंगे। वह समाजवादी सेक्युलर मोर्चे का गठन कर अखिलेश की साइकिल का कितना नुकसान कर पाएंगे? क्या वह यादवों के सर्वमान्य नेता बन पाएंगे? युवा वर्ग क्या शिवपाल सिंह यादव की जमात में शामिल होगा? क्या अखिलेश के साथ जिस तादाद में समाजवादी पार्टी कि लाल ब्रिगेड है, वह चाचा शिवपाल सिंह के साथ खड़ी होगी?
इसमें कोई दोराय नहीं कि जातिगत आधार पर शिवपाल सिंह की पकड़ यादवों में उतनी अधिक नहीं है जितनी अखिलेश के साथ है। यह बात उसी समय साबित हो गयी थी जब अखिलेश ने अमर सिंह के साथ शिवपाल सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा चुनाव आयोग से पार्टी सिंबल अपने नाम कर लिया था। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की सत्ता की बागडोर संभालने के बाद अखिलेश यादव का व्यक्तित्व एक नए अंदाज में निखरा है।
लोग अखिलेश यादव और उनकी नीतियों के काफी प्रशंसक है। काफी संख्या में लोग राजनीतिक समझ के लिहाज से राहुल गांधी से अधिक गंभीर अखिलेश यादव को मानते हैं। हालांकि कानून व्यवस्था के मामले में वह फेल हो गए थे। राज्य में अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ा था। बलात्कार की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई थी। हलांकि एक सफल सरकार चलाने में वह कामयाब मुख्यमंत्री साबित हुए।
समाजवादी पार्टी में बिखराव का यह सिलसिला तो राज्य विधानसभा चुनावों के पूर्व वर्ष 2017 में ही शुरू हो गया था जब अखिलेश यादव ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए पिता मुलायम सिंह यादव के साथ चाचा शिवपाल सिंह यादव को पार्टी अधिवेशन में चार प्रस्तावों के जरिए बाहर का रास्ता दिखाया। पिता मुलायम सिंह यादव से उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान छीन ली। उन्हें मार्गदर्शक बना दिया गया। मुंह बोले चाचा अमर सिंह को भी किनारे कर दिया।
आज वहीं अमर सिंह भतीजे अखिलेश को पानी पी-पी गालियां बक रहे हैं। कई टीवी साक्षात्कारों में अमर सिंह ने आजम खां और अखिलेश को निशाने पर रखा है। उन्होंने यह भी कहा कि शिवपाल सिंह को भाजपा में लाने के लिए बात पक्की हो गई थी, लेकिन शिवपाल ही मुकर गए।मीडिया में अफवाहें हैं कि शिवपाल सिंह यादव भाजपा में शामिल होने जा रहे हैं। पार्टी में उन्हें बड़ी जिम्मेदारी के साथ पद सौंपने की बात है। मीडिया में इस तरह की खबरें भी हैं कि सारी स्थिति साफ हो गयी है।
हालांकि शिवपाल सिंह यादव ने इस तरह की अटकलों से इनकार किया है। राजनीतिक रूप से अगर उन्हें अखिलेश यादव और रामगोपाल से अपना हिसाब-किताब पूरा करना है तो इसके लिए उन्हें जोखिम भरे फैसले निश्चित तौर पर लेने पड़ेंगे, क्योंकि सिर्फ अपने सेक्युलर मोर्चे से वह 2019 में अखिलेश यादव को अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। भाजपा की यह रणनीति भी होगी कि वह किसी तरह शिवपाल सिंह यादव को पार्टी में शामिल करने में सफल हो क्योंकि वह अच्छी तरह जान रही है कि दलित एक्ट संशोधन के बाद यूपी में अगड़ी जातियां भाजपा से बेहद नाराज हैं।
संसद में दलित एक्ट में मोदी सरकार की तरफ से लाया गया संशोधन अगड़ी जातियों को रास नहीं आ रहा है। दूसरी तरह भतीजे अखिलेश यादव और बुआ मायावती की पार्टी सपा-बसपा एक साथ मंच पर आयीं तो निश्चित तौर पर भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। क्योंकि इसका प्रयोग फूलपुर, कैराना के साथ गोरखपुर में हो चुका है। भाजपा को यूपी फतह करने के लिए 50 फीसदी वोट का लक्ष्य हासिल करना है जो कि वर्तमान राजनीतिक हालात में बेहद मुश्किल है।
भाजपा उस स्थिति में शिवपाल सिंह यादव के कंधे का बेहतर उपयोग कर जहां अखिलेश यादव पर सियासी बढ़त का मनोवैज्ञानिक असर बनाने का दावा कर सकती है, वहीं मायावती और भतीजे अखिलेश की सियासी दोस्ती को भी वह अपनी चालों से कमजोर करना चाहती है। शिवपाल के माध्यम से यादवों के वोट बैंक में वह सेंधमारी करना चाहती है। हालांकि इसका बहुत बड़ा असर फिलहाल नहीं दिखता है लेकिन पारिवारिक फूट समाजवादी पार्टी को मुश्किल में डाल सकती है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति पूरी तरह जातिवादी व्यवस्था पर आधारित है। राज्य में सपा और बसपा जातिवादी विचारधारा के मुख्य दल हैं। सपा यादवों और दूसरे पिछड़ों का नेतृत्व करती है, जबकि बसपा दलितों का दल है। राज्य की अगड़ी जातियां जब इन दलों के साथ आयीं तो सत्ता की बागडोर सपा और बसपा के हाथ गयी, लेकिन जब नाराज हुईं तो दोनों दल सत्ता से पैदल हो गए। जिसकी वजह है बदले राजनीतिक हालात में वर्ष 2019 में दोनों दलों ने एक साथ आने का फैसला किया है।
अब शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी या परिवारवाद की मुख्यधारा से निकल कर अपनी सियासी शतरंज में कितना कामयाब होंगे यह तो वक्त बताएगा, लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए यह बिखराव राजनीतिक लिहाज से शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। अखिलेश यादव अपने सियासी रास्ते के सभी रोड़े साफ करना चाहते हैं। वह चाहते सैफई के समाजवादी परिवार में जितने भी सियासी रुकावटें हैं वह साफ हो जाएंगी। वैसे भी शिवपाल सिंह यादव पार्टी में दो सालों से न्यूट्रल रह कर पार्टी को बहुत बड़ी क्षति पहुंचाने में नाकाम रहे हैं। फिलहाल लोहिया की विरासत पर अंतर्कलह पार्टी को कहां ले जाएगी यह वक्त बताएगा। हालांकि यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। (हिफी)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)