अमेरिका के थिंक टैंक फ्रीडम हाउस की हालिया रिपोर्ट में जिस तरह भारत का जिक्र किया गया है, उससे यह रिपोर्ट कम, झूठ का पुलिंदा ज्यादा लगती है। इसमें निष्पक्षता का अभाव है। मालूम होता है कि भारत के बारे में यह रिपोर्ट तैयार करने वाले ने दो-तीन वेबसाइट्स देख लीं, कुछ वायरल वीडियो पर नजर दौड़ा ली.. बस, बन गई रिपोर्ट! इसमें भारत के फ्रीडम स्कोर को घटाया गया है। इससे पहले, भारत का दर्जा ‘स्वतंत्र’ हुआ करता था, जो अब ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ करार दिया गया है। इसके अलावा, इंटरनेट फ्रीडम स्कोर को लेकर भी भारत को ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ बताया गया है।
रिपोर्ट में भारत की आलोचना करते हुए यह कहना कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा की सरकार ने भेदभाव वाली नीतियों और एक समुदाय विशेष को प्रभावित करने वाली बढ़ती हिंसा की अगुवाई की है, अनुचित है। रिपोर्ट के इन शब्दों से इसका भारत के प्रति विरोध साफ झलकता है। सबसे पहले तो यह बिंदु विचारणीय है कि एक साल में ऐसा क्या हो गया जिससे भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हो गया? देश में धरने, विरोध प्रदर्शन, आंदोलन सब कुछ उसी तरह हो रहे हैं, जैसे पहले हुआ करते थे। किसान आंदोलन के नाम पर लालकिले में हुड़दंग और तिरंगे के अपमान की घटना के बाद यह पूछा जाना चाहिए कि अब और कितनी आज़ादी चाहिए?
टीवी स्टूडियो में होने वाली बहस उसी तरह हो रही हैं। उनमें विभिन्न पार्टियों के नेता, प्रवक्ता भाग लेते हैं। क्या आपने किसी के सुरों में अचानक नरमी देखी, जिससे लगता हो कि कोई अदृश्य ताकत उन्हें डंडे के जोर पर हांक रही है? सोशल मीडिया पर आलेख, टिप्पणियां, विरोध, निंदा बदस्तूर जारी हैं। अगर ओटीटी प्लेटफॉर्म की बात करें तो वहां ऐसी सामग्री की भरमार है जिनमें सनातन धर्म, देवी-देवताओं को निशाना बनाया जाता है। क्या आप इतनी आज़ादी से भी संतुष्ट नहीं हैं?
ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त थिंक टैंक ने ठीक से ‘थिंक’ नहीं किया है। अगर किया होता तो उसके शब्द वास्तविकता के आसपास होते। यह भी संभव है कि उसे कोई ऐसा ‘बुद्धिजीवी’ मिल गया जिसे हर समय लगता है कि भारत में अचानक असहिष्णुता बढ़ गई है। रिपोर्ट में भारत की आलोचना करते हुए कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी और हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा की सरकार ने भेदभाव वाली नीतियों और एक समुदाय विशेष को प्रभावित करने वाली बढ़ती हिंसा की अगुवाई की है!
फ्रीडम हाउस को यह स्वतंत्रता अवश्य है कि वह भारत सरकार की नीतियों का अध्ययन करे, सवाल उठाए और कहीं कोई खामी मिलती है तो आलोचना करे। पर यह तथ्यों पर आधारित हो, न कि पूर्वाग्रह पर। फ्रीडम हाउस की यह टिप्पणी वास्तविकता से परे है कि भारत में सरकारी स्तर पर कहीं भेदभाव आधारित नीतियां हैं। अगर पिछले एक साल की ही बात करें तो कोरोना लॉकडाउन में जब केंद्र सरकार ने निशुल्क राशन की घोषणा की तो वह किसी का धर्म पूछकर नहीं दी गई। इसमें सर्वसमाज का ध्यान रखा गया।
इसी तरह समय-समय पर योजनाओं के अनुसार जो वित्तीय लाभ एवं सुविधाएं दी गईं, उनमें कहीं भी धर्म, जाति, राज्य, भाषा, लिंग, खानपान और किसी किस्म का कोई भेदभाव नहीं किया गया। अब जबकि भारतीय वैज्ञानिकों ने कोरोना वैक्सीन बना ली है तो सबसे पहले कोरोना योद्धाओं को लगाई जा रही है। महामारी के खिलाफ लड़ाई में भारत की प्रतिबद्धता इसी से समझी जा सकती है कि इस समय जब हर किसी को अपने प्राणों की चिंता होना स्वाभाविक है, देश के प्रधानमंत्री ने भी तब वैक्सीन लगवाई जब प्रथम पंक्ति के योद्धाओं को सुरक्षा कवच मिल गया। क्या उन्हें उनका धर्म पूछकर वैक्सीन लगाई गई?
अब आम नागरिकों को वैक्सीन लगाई जा रही है तो उसमें भी भारत बिना किसी भेदभाव के सबका जीवन सुरक्षित बनाने की कोशिशों में जुटा है। संभवत: फ्रीडम हाउस को भारत में ‘आज़ादी’ तब नजर आती, जब हम ग्रेटा और मिया खलीफा जैसे क्रांतिकारियों को यह बुलावा भेजते कि आप यहां आएं और जहां मर्जी करे, आग लगाएं। यह हम होने नहीं देंगे। जिस देश में ट्रंप का सोशल मीडिया अकाउंट बिना स्पष्टीकरण के उड़ा दिया गया, वे हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी पर शिक्षा न दें।