‘कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में’ — अगर ये अल्फाज़ बहादुर शाह ज़फर ने अपने लिए न लिखे होते तो कोई और शायर पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति व फौजी तानाशाह जनरल परवेज मुशर्रफ के लिए लिख रहा होता। कोई और इसलिए, क्योंकि मुशर्रफ तो शायरी करना जानते नहीं होंगे। वे तो सिर्फ दो काम करना जानते हैं- धोखा और तख्तापलट। जिस हिंदुस्तान के दिल दिल्ली में उनका जन्म हुआ, वे पूरी ज़िंदगी उसे तबाह करने का ख्वाब देखते रहे। वे जिस मुल्क में पले, बढ़े, बतौर फौजी पदोन्नति पाते हुए सेना प्रमुख बने, उसके भी वफादार न हो सके और सेना प्रमुख की कुर्सी पर बैठाने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की कुर्सी उलट दी।
आज मुशर्रफ अपने वतन से दूर, दुबई के एक अपार्टमेंट में हैं। उनकी एक तस्वीर सोशल मीडिया में आई तो हर कोई पूछ रहा है- क्या यह वो ही परवेज मुशर्रफ है जिसे खुद की ताकत पर बड़ा गुरूर था, जिसकी गुर्राहट पर बड़े-बड़े हाकिमों के माथे पर पसीने आ जाया करते थे? क्या दिन आ गए! इसमें तो मुशर्रफ किसी लाचार, बीमार और पस्त इन्सान जैसे लग रहे हैं। मुशर्रफ की यह तस्वीर सबक है उन लोगों के लिए जो ताकत और रुतबे के आगे किसी को कुछ नहीं समझते। यह भूल जाते हैं कि वक्त के साथ अच्छे-अच्छों के सितारे गर्दिश में चले जाते हैं।
अगर इतिहास ईमानदारी से लिखा गया तो परवेज मुशर्रफ ऐसे शख्स के तौर पर याद किए जाएंगे जिसने हमेशा अपनों से नफरत की और अमन की फिजा में दहशत की आग लगाई। जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी साल 1999 में बस लेकर लाहौर गए तो दोनों ओर से इस बात को लेकर काफी उम्मीद जताई जा रही थी कि अब कश्मीर मामले पर किसी एक सर्वस्वीकार्य बिंदु तक पहुंच जाएंगे। उस समझौते की स्याही भी नहीं सूखी थी कि मुशर्रफ ने कारगिल की पहाड़ियों पर चढ़ाई कर दी। बाद में भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई की तो हालत पतली हो गई और मुशर्रफ के निवेदन पर नवाज को अमेरिका जाकर तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सामने हाथ जोड़ने पड़े।
जब यह बेइज्जती मुशर्रफ को अपने गले पड़ते दिखी तो उसी साल तख्तापलट कर दिया। तब उनके नाम का डंका बज रहा था, मारें जिसको मारें और छोड़ें जिसको छोड़ें, अवाम की छाती पर बरसों मूंग दलते रहे। सेना प्रमुख रहते बैठे-बैठाए कारगिल युद्ध छेड़कर न केवल भारत, बल्कि अपने सैनिकों की जान गंवाने के जिम्मेदार बने। अब मुशर्रफ की हालत उस शख्स जैसी है जो दिनभर ताकत, दौलत, रुतबे के पीछे भागता रहा, लेकिन जब शाम को मुट्ठी खोली तो वह खाली की खाली मिली। कभी जिस रावलपिंडी और इस्लामाबाद में उनका काफिला गुजरने से पहले सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था, आज वहां उनका कोई नामलेवा नहीं रहा।
यहां ऐसे पाकिस्तानियों की तारीफ करनी होगी जिन्होंने अपनी अक्ल आतंकवादियों के चरणों में गिरवी नहीं रखी। वे मुशर्रफ को ऐसे शख्स के तौर पर याद कर रहे हैं जिसने जिया उल हक के बाद पाकिस्तान को सबसे ज्यादा तबाह किया। इसके साथ ही पाकिस्तान के नागरिकों को अपने वर्तमान शासकों की भूमिका का मूल्यांकन करना चाहिए जो भारत में आतंकवाद फैलाकर उनका ही नुकसान कर रहे हैं। भारत अपने नागरिकों की रक्ष करना जानता है। उसे सर्जिकल स्ट्राइक या एयर स्ट्राइक करने के लिए किसी बाहरी ताकत से हरी झंडी की जरूरत नहीं है। हाल में बालाकोट एयर स्ट्राइक के दो साल पूरे हो चुके हैं। अगर पाकिस्तान की जनता अपने आतंकवादियों, तानाशाहों और अयोग्य हुक्मरानों की जय-जयकार नहीं करेगी तो उनके लिए अपनी नापाक हरकतों को अंजाम देना इतना आसान नहीं होगा।
ज़िंदगी के इस पड़ाव तक पहुंचने के बाद हर किसी की इच्छा होती है कि वह अपनी मातृभूमि के दर्शन करे। मुशर्रफ भारत आना नहीं चाहेंगे, फजीहत महसूस करेंगे कि जिस देश की तबाही के ख्वाब बुनते रहे, आखिर में वहीं आना पड़ा! और पाकिस्तान जा नहीं सकते, कांड ही ऐसे किए हैं। मुशर्रफ को दिसंबर 2019 में एक अदालत ने सजा-ए-मौत सुना दी थी। जज ने यह तक कहा था कि अगर फांसी से पहले उनकी की मौत हो जाए तो माफी नहीं है। उनकी लाश को सेंट्रल स्क्वायर तक खींचकर लाया जाए और तीन दिन तक फांसी पर लटकाया जाए। बाद में ‘ऊपरी’ ताकतों के इशारे से फैसला पलट दिया और बात आई-गई हो गई। अगर सजा अमल में लाई जाती तो भविष्य में कोई फौजी तानाशाह बनने से पहले हजार बार सोचता।
मुशर्रफ का यह हश्र उन तानाशाहों के लिए नजीर है जिन्हें लगता है कि ताकत हमेशा रहने वाली है और लोग यूं ही सलाम करते रहेंगे। तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है कि ‘समय बड़ा बलवान’ होता है। हमें इस बात को भूलना नहीं चाहिए। जो अपनी मातृभूमि से, अपनों से नफरत करता हुआ यह उम्मीद लेकर बाहर जाता है कि वहां मुझे बड़ी इज्जत मिलेगी, तो वह अपनी भूल सुधारे। वह आखिरी वक्त में खुद को अकेला ही पाता है।
यह एक संयोग है या विधि का विधान कि जिन्होंने भारत से घृणा की, वे आखिर में ऐसे ही अंजाम तक पहुंचे। फिर चाहे वह जनरल डायर हो या याह्या खान, भुट्टो हो या जिया उल हक — कितने ही अहंकारी काल के गाल में समा गए, वहीं भारत युगों-युगों से है और सदैव रहेगा। मुशर्रफ साहब, भारत मां से माफी मांग लीजिए, ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं।