श्रीलंका में हाहाकार मचा है। हालात दिन पर दिन बिगड़ते ही जा रहे हैं। जनता के तीखे विरोध का सामना कर रहे महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर 'पीछा छुड़ाने' की कोशिश की, लेकिन यह इतना आसान नहीं है। अभूतपूर्व आर्थिक संकट का सामना कर रहे इस देश से सबको सबक लेना चाहिए। वर्षों उग्रवाद की ज्वाला से झुलसने के बाद श्रीलंका में कुछ शांति आई थी। पर्यटन बढ़ने लगा था। लोगों की ज़िंदगी कुल मिलाकर ठीक चल रही थी। इस बीच श्रीलंका के राजनेताओं को चीन की दोस्ती का 'मीठा' रोग लग गया। भारी-भरकम कर्जे, ऊंची ब्याज दरें और उन्हें चुकाने की कोई ठोस योजना न होने के चलते श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ने लगा।
सरकार ने हंबनटोटा बंदरगाह 99 साल की लीज पर सौंपकर जनता को यह संदेश देने की कोशिश की थी कि 'सबकुछ ठीक है', लेकिन रक्तपिपासु ड्रैगन एक बार कर्ज के जाल में फंसे शिकार को इतनी आसानी से नहीं छोड़ता। श्रीलंकाई सरकार की दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों ने महंगाई की आग में घी का काम किया। दो समय का भोजन भी आम जनता की पहुंच से दूर हो गया। बाकी कसर कोरोना महामारी ने पूरी कर दी। इस अवधि में पर्यटन व्यवसाय चौपट हो गया। लोग बेरोज़गार होने लगे। श्रीलंका को इस स्थिति तक पहुंचाने के लिए एक संपूर्ण दुश्चक्र है।
श्रीलंका ने पर्यटन पर अतिनिर्भरता रखी, कमाई के अन्य विकल्प नहीं तलाशे। कोरोना में जब उस पर ताला लग गया तो आज हालत सबके सामने है। यह उन लोगों के लिए भी एक सबक है जो कर्ज लेकर घी पीने में विश्वास करते हैं। जरूरत पड़ने पर कर्ज लेना ग़लत नहीं है लेकिन उसके साथ यह भी देखना चाहिए कि उसे समय पर चुकाने की क्षमता कितनी है। पिछले कुछ वर्षों से भारत के सियासी गलियारों में इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले वादे चर्चा में रहे हैं। मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, बिना काम किए सालाना 72,000 रुपए ...। नेता ये घोषणाएं ऐसे करते हैं जैसे इनके पास जादू की कोई छड़ी है या कोई चिराग, जिसे एक हुक्म देंगे तो दूध की नहरें बहने लगेंगी।
सरकारों को चाहिए कि वे रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं अत्यंत कम मूल्य पर उपलब्ध कराएं, महंगाई पर कठोरता से नियंत्रण रखें, लेकिन जनता को मुफ्तखोरी का रोग न लगाएं। सरकारें रोजगार का सृजन करें और ऐसा वातावरण उपलब्ध कराएं कि लोग खुद मेहनत करके सम्मानजनक एवं गरिमापूर्ण ढंग से जीवन यापन कर सकें। वे श्रेष्ठ प्रवृत्तियों एवं ईमानदारी को बढ़ावा देने के लिए कुछ छूट का प्रावधान ज़रूर करें, लेकिन वोटबैंक पक्का करने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां न बांटे। बेसहारा और जरूरतमंद लोगों के लिए विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी।
जनता को भी चाहिए कि वह राजकोष से संबंधित मुद्दों को लेकर जागरूक रहे। यह किसी नेता, परिवार या पार्टी का निजी धन नहीं, देश का पैसा है। इसका उपयोग आत्मनिर्भर बनने में किया जाए, न कि मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने के लिए। चीन ने श्रीलंकाई सरकार की इसी प्रवृत्ति का फायदा उठाया और बिना एक तीली जलाए इस देश को आग में झोंक दिया।