प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर ही दी। वैसे माना यही जा रहा था कि मोदी ये कानून वापस नहीं लेंगे। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री के शब्दों पर गौर किया जाए तो आसानी से यह समझा जा सकता है कि कानून वापस लेने का फैसला बिल्कुल आसान नहीं था। बहरहाल मोदी साफ कर चुके हैं तो कानून वापस होगा और उम्मीद जताई जानी चाहिए कि 'किसान आंदोलन' के नाम पर हो रही सियासत बंद होगी, किसानों की ज़िंदगी से जुड़े अहम मसले सुलझाने पर भी ध्यान दिया जाएगा।
मोदी द्वारा कानून वापस लिए जाने के फैसले पर चर्चा होती रहेगी। यह तो समय ही बताएगा कि इससे किसानों का कितना हित होगा। चर्चा इस बात पर भी होनी चाहिए कि आज़ादी के सात दशक बीत जाने के बावजूद देश का 'अन्नदाता' समस्याओं से क्यों घिरा है? अकाल, फसल खराबे, कम उपज, कर्ज, भ्रष्टाचार के दानव उसे क्यों सताते रहे हैं? अगर कृषि उपज से संबंधित पुरानी व्यवस्था इतनी ही अच्छी, न्यायकारी, कल्याणकारी व परिवर्तनकारी थी तो हर साल सैकड़ों किसान आत्महत्या करने को मजबूर क्यों हैं?
खेती-किसानी की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले को पता होगा कि छोटे किसानों के लिए कृषि घाटे का सौदा ही रही है। आज कोई किसान नहीं चाहता कि उसकी संतान पढ़-लिखकर खेती करे। उसके अरमान यही होंगे कि वह नौकरी करे, चाहे कम तनख्वाह हो लेकिन हर महीने खाते में पहुंचती रहे। चूंकि खेती में निश्चितता नहीं है। दूसरों की थाली तक रोटी पहुंचाने वाला किसान आज़ादी से लेकर आज तक इसी अनिश्चितता में जीता रहा है। ऐसे में विचार इस पर भी होना चाहिए कि पुरानी प्रणाली उनकी तकलीफों को दूर क्यों नहीं कर सकी।
कानून वापसी की घोषणा से विपक्ष में हर्ष की लहर है। सरकार की प्रतिद्वंद्वी होने से यह स्वाभाविक ही है। वे सरकार के इस फैसले पर सवाल उठाएं, उसे आड़े हाथों लें - यह उनका हक है। लेकिन अपनी जिम्मेदारी से वे भी नहीं बच सकते। साल 2018 में विधानसभा चुनावों के बाद राजस्थान, छत्तीसगढ़, मप्र जैसे बड़े राज्यों में सत्ता में आई कांग्रेस ने कितने किसानों के कर्ज माफ किए? मप्र को छोड़ दें तो बाकी दोनों राज्यों में उसकी ही सरकारें हैं। उसने किसानों के जीवनस्तर में बेहतरी के लिए कौनसे ठोस कदम उठाए?
महाराष्ट्र सरकार में भागीदार कांग्रेस को ज्ञात होना चाहिए कि वहां किसानों की क्या स्थिति है। केंद्र द्वारा कृषि कानून लाए जाने के साथ ही जिस तरह का वातावरण बनाया गया, लाल किले में हुड़दंग मचा और टकराव की घटनाएं हुईं, उससे लगता नहीं कि विपक्ष ने कोई रचनात्मक भूमिका निभाई। उसका काम विरोध के लिए विरोध करना ज्यादा रहा था। अब चूंकि सरकार ने कानून वापस लेने की घोषणा कर दी है तो इसे आगामी विधानसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसानों के मुद्दे किसी भी राज्य में मतदान को प्रभावित करते हैं। कानून वापसी के बाद भाजपा उप्र विधानसभा चुनाव में इस बात को दोहराएगी कि उसने किसानों के कल्याण के लिए बहुत कोशिश की लेकिन 'कुछ लोगों' को नहीं समझा पाई। इसका 'दोष' विपक्ष पर डालेगी। वहीं, विपक्ष को नए मुद्दे तलाशने होंगे। वास्तव में कृषि कानूनों के बारे में इतना ज्यादा दुष्प्रचार किया गया कि किसानों के सामने उनकी सही तस्वीर पेश नहीं हो सकी। अगर इनमें कहीं खामियां थीं तो सुधार किया जाना चाहिए था। विपक्ष और 'किसान नेताओं' के रवैए से किसानों को कितना लाभ हुआ, यह किसानों को स्वयं पता लगाना चाहिए।
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