एक राष्ट्र, एक चुनाव

राजनेताओं, विधिवेत्ताओं को भी इस पर विस्तृत चर्चा करनी चाहिए


यूं तो समय-समय पर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को लेकर चर्चा होती रही है, लेकिन इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाया गया है। अब पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने इस अवधारणा का समर्थन किया है। राजनेताओं, विधिवेत्ताओं को भी इस पर विस्तृत चर्चा करनी चाहिए। आखिर देश को इस दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ना चाहिए? इससे नागरिकों को क्या लाभ हो सकते हैं — जैसे सवालों के जवाब रातोंरात तो नहीं मिल सकते, लेकिन इसके लिए नेतागण और जनता का मन टटोलना जरूरी है। 

क्या मतदाता पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक बार-बार मतदान करना चाहते हैं या एक ही बार में प्रतिनिधि चुनकर यह आशा करते हैं कि अब वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन भलीभांति करें? यह भी देखना जरूरी है कि अगर भविष्य में देश ऐसी व्यवस्था स्वीकार करता है तो उसकी शुरुआत कैसे होगी? क्या एकसाथ इतनी बड़ी संख्या में संसाधन एकत्रित किए जा सकते हैं? 

चूंकि लोकसभा चुनाव तो अखिल भारतीय स्तर पर होते हैं, लेकिन विधानसभा और शहरी व ग्रामीण निकायों के चुनाव हर राज्य में अलग-अलग समय पर होते हैं। अगर इन सबके लिए एक समय, भले ही वह विभिन्न चरणों में हो, तय कर लिया जाए तो भी इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक दलों को मना लेना आसान नहीं होगा। स्वाभाविक रूप से विपक्ष इसका विरोध करेगा और जनता को यह संदेश देने की कोशिश करेगा कि देश का लोकतंत्र खतरे में है। 

इन तमाम चुनौतियों के बावजूद इस विषय पर चर्चा होनी ही चाहिए। इसी से समाधान होगा और रास्ते भी खुलेंगे। विशेषज्ञ पहले ही कह चुके हैं कि अगर मौजूदा चुनाव प्रणाली की जगह उक्त प्रणाली की स्थापना की जाती है तो इसके लिए संवैधानिक संशोधनों की जरूरत होगी। जिसका अर्थ है कि संसद में नेतागण इस पर विचार रखेंगे, अपनी पार्टी का रुख साफ करेंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विभिन्न अवसरों पर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का समर्थन कर चुके हैं। यह भी सच है कि हर साल किसी न किसी राज्य/राज्यों में चुनाव होते रहते हैं। अलग-अलग चुनाव होने से भारी खर्च होता है। आचार संहिता लगने से विकास कार्यों की गति धीमी हो जाती है। अगर सभी चुनाव एक साथ हों तो यह राशि बचेगी, जिसका उपयोग अन्य विकास कार्यों में हो सकता है। 

देखने में आता है कि जब देश प्रगति-पथ पर थोड़ा आगे बढ़ता है, कहीं न कहीं चुनाव आ जाता है। शीर्ष नेता चुनावी रैलियों में व्यस्त हो जाते हैं। क्या इससे सरकारों के प्रदर्शन पर असर नहीं होता? निश्चित रूप से होता है। जो ऊर्जा दफ्तरों और बैठकों में खर्च होनी चाहिए, वह जनसभाओं में खर्च होती है। निस्संदेह लोकतंत्र के लिए जनसभाएं जरूरी हैं और देश की प्रगति के लिए सरकारी बैठकें, विचार-विमर्श भी बहुत जरूरी हैं। इनमें से किसी को नहीं टाला जा सकता, लेकिन समय और संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग कर अपने प्रदर्शन को अवश्य सुधारा जा सकता है। 

पांच साल में एक बार चुनाव हो जाएं। फिर सरकारें और निकाय पूरी तरह विकास कार्यों पर ध्यान दें, जमीनी स्तर पर हालात बेहतर बनाएं। अगर ऐसा होता है तो कुछ ही दशकों में इसके अच्छे नतीजे नजर आने लगेंगे। ऐसा भी नहीं है कि मतदाताओं को इससे समस्या होगी या वे भ्रमित हो जाएंगे। अब आम मतदाता इतना जागरूक हो गया है कि उसे उम्मीदवार, पार्टियों, मुद्दों से लेकर मतदान, चुनाव परिणाम और सरकार बनाने तक की पर्याप्त जानकारी हो चुकी है। भले ही इस प्रक्रिया में कुछ और समय लग जाए, लेकिन चुनाव सुधार के लिए इस दिशा में प्रयास जारी रहने चाहिएं।
 

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