सोशल मीडिया का बिना सोचे-समझे इस्तेमाल अफवाहों को बढ़ावा दे रहा है। ऐसा नहीं है कि अफवाहें पहले नहीं फैलती थीं, लेकिन तब उनमें इतनी तीव्रता नहीं थी, जो सोशल मीडिया ने दे दी है। फेक न्यूज भी एक तरह की अफवाह हैं, जिनके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। जब तक लोगों के सामने असलियत आती है, नुकसान हो जाता है। भारत में हाल में 'बच्चा-चोरी' के मैसेज वॉट्सऐप ग्रुप में खूब वायरल हुए, जिन्हें लोगों ने हाथोंहाथ लिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि कई जगह उग्र भीड़ द्वारा साधुओं, राहगीरों और बच्चे के माता-पिता तक की पिटाई कर दी गई। यह ट्रेंड भारत के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी देखा जाता है।
इन दोनों पड़ोसी देशों में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं, जहां एक अफवाह के बाद गुस्साई भीड़ तोड़-फोड़, आगजनी, मारपीट और हत्या के लिए आमादा हो गई। उसने लोगों को मौत के घाट भी उतार दिया। कराची में दो लोगों पर करीब 500 की भीड़ टूट पड़ी। उसे सिर्फ इतना बताया गया कि ये लोग बच्चा चुराने आए हैं। इसके बाद न किसी ने नाम पूछा और न उद्देश्य, जो हाथ लगा, उसी से मारने लगे। जब दम दोनों का निकल गया तो पता चला कि ये तो एक मोबाइल कंपनी के कर्मचारी थे, जो सिग्नल की जांच करने आए थे। अब पुलिस सीसीटीवी कैमरे खंगाल रही है।
सवाल है कि इन तीनों देशों में जनता किसी एक बुलावे पर तुरंत प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार क्यों हो जाती है? वह भी इतनी कठोर प्रतिक्रिया! भारत में भी ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जब लोगों ने 'ख़बर' की सच्चाई जाने बिना कानून को अपने हाथ में ले लिया। ऐसा ही हाल बांग्लादेश की जनता का है। पिछले दिनों वहां भी एक मामला चर्चा में आया, जब गुब्बारा विक्रेता दंपति की भीड़ ने इस शक के आधार पर पिटाई कर दी, क्योंकि उनके साथ एक बच्चा भी था। लोगों को 'लगा' कि ये बच्चे को गुब्बारे का लालच देकर उठा लाए हैं। बाद में पता चला कि बच्चा उन्हीं का था।
क्या लोगों का पुलिस, अदालतों, कानून आदि पर भरोसा कम हो रहा है? क्या उन्हें ऐसा महसूस हो रहा है कि यह तंत्र असल अपराधियों को दंड देने में सक्षम नहीं है या बहुत देर बाद दंड देता है? क्या इसकी वजह यह भी है, क्योंकि अक्सर ताकतवर लोग कानूनी दांव-पेच लगाकर छूट जाते हैं, इससे लोगों को महसूस होता है कि अमीरों के लिए कानून और है, ग़रीबों के लिए और? क्या इसी की प्रतिक्रिया 'भीड़तंत्र के न्याय' के रूप में सामने आ रही है? सरकारों और विधिवेत्ताओं को इस पर विचार करना चाहिए।
मात्र आरोपों के आधार पर किसी को भी मौत के घाट उतार देना अनुचित एवं अन्यायपूर्ण है। यह सच है कि बच्चों के खिलाफ अपराध होते हैं। हर साल अपहरण की घटनाएं भी सामने आती हैं, लेकिन जनता को यह अधिकार बिल्कुल नहीं है कि वह संबंधित व्यक्ति के 'अपराधों' का दंड दे। यह काम न्यायालय का है। अगर किसी व्यक्ति की गतिविधियां संदिग्ध दिखतीं है तो पुलिस को सूचित करना चाहिए। ऐसा न हो कि भावनाओं के ज्वार में दर्जनों या सैकड़ों की भीड़ किसी पर टूट पड़े। जो लोग मारपीट में 'ताकत' दिखा चुके होते हैं, फिर पुलिस उनके पीछे लगती है।
ऐसे ज़्यादातर मामलों में पीड़ित सामान्य व्यक्ति ही होता है। सरकारों को ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि ये अफवाहें एक बार फैलकर कुछ समय के लिए शांत हो जाती हैं। फिर कोई इन्हें शेयर कर देता है तो दोबारा वायरल होने लगती हैं। ऐसे मैसेज पर नज़र रखनी चाहिए। जनता को जागरूक करते हुए शरारती तत्त्वों के खिलाफ उचित कार्रवाई ही समाधान है।