स्वस्थ जीवन के लिए तन और मन दोनों का स्वस्थ होना जरूरी है। प्रायः हम शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में तो बहुत चर्चा करते हैं, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा कर देते हैं। कालांतर में इससे कई समस्याएं उत्पन्न होती हैं, जो जटिल रूप ले सकती हैं। इस बार विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर जिस तरह मानसिक स्वास्थ्य के बारे में चर्चा हो रही है, वह शुभ संकेत है। इस पर और बात होनी चाहिए। खासतौर से परंपरागत और सोशल मीडिया इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
प्रायः यह देखने में आता है कि जब कोई शारीरिक रूप से अस्वस्थ होता है तो उसे उपचार के लिए सलाह देने और अच्छे डॉक्टर का नाम सुझाने वाले बहुत मिल जाते हैं, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के लिए न तो लोगों में इतनी जागरूकता है और न परामर्श तथा उपचार के लिए इतनी व्यवस्थाएं मौजूद हैं। परिणामस्वरूप नित-नई समस्याएं सामने आ रही हैं। जिस तरह शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अच्छी दिनचर्या, अच्छी खुराक और दवाइयों की जरूरत होती है, उसी तरह मन को स्वस्थ रखने के लिए भी इनकी जरूरत होती है। इसे किसी भी प्रकार से आश्चर्यजनक घटना के तौर पर नहीं देखना चाहिए।
यह विडंबना ही है कि समाज में जब कोई व्यक्ति मनोचिकित्सक से परामर्श लेने जाता है तो उसे अजीब समझा जाता है। उसके पीठ पीछे बातें बनाई जाती हैं, जबकि यह वो समय है, जब उस व्यक्ति की समस्या को समझकर उसका मनोबल बढ़ाया जाए। हो सकता है कि आपसी बातचीत से ही कोई बेहतरीन समाधान निकल आए! आज सुरक्षा बलों से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों तक में आत्महत्याओं की घटनाएं सामने आ रही हैं। ऐसा सिर्फ भारत में नहीं हो रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, जापान, द. कोरिया समेत कई विकसित देशों में आत्महत्या की घटनाएं मानव की उस प्रगति पर सवाल उठाती प्रतीत होती हैं, जहां वह खुद से ही हार रहा है।
कई बार ऐसा होता है कि जब बचपन में किसी के अनुभव बुरे रहे हों तो वह व्यक्ति जीवनभर परेशानी का सामना करता रहता है। ऑस्ट्रेलिया के एक नागरिक मि. जेम्स (बदला हुआ नाम) जब 25 साल के हुए तो एक कंपनी में काम करने लगे। उन्हें जब भी तनख्वाह मिलती तो वे उसका बड़ा हिस्सा बच्चों के लिए खिलौने खरीदने पर खर्च कर देते। उनकी शादी नहीं हुई थी और न घर में बच्चा था। वे अपने माता-पिता से बहुत दूर रहते थे। धीरे-धीरे खिलौने खरीदने की यह लत जोर पकड़ती गई। उन्होंने अपने घर का एक कमरा खिलौनों से भर दिया। इस पर भी वे संतुष्ट नहीं थे। वे जब कभी बाजार जाते, कोई खिलौना ले आते। यहां तक कि उन्होंने खिलौने खरीदने के लिए विदेश यात्रा भी की, जिसके लिए कर्ज लिया।
एक दिन उनकी कोई सहकर्मी घर आई तो वे खिलौनों से भरा कमरा देखकर हैरान रह गईं। उन्होंने जेम्स से इसकी वजह पूछी तो वे भी कोई जवाब नहीं दे सके। सिर्फ इतना बोले, ‘मुझे खिलौने खरीदना अच्छा लगता है।’ उन्होंने जेम्स से कहा कि वे एक अच्छे मनोचिकित्सक से परामर्श लें। थोड़ी ना-नुकुर के बाद जेम्स मान गए।
वे अगले दिन मनोचिकित्सक के पास गए, जिन्होंने उनसे कई सवाल किए। इस दौरान जेम्स ने बताया कि जब वे बहुत छोटे थे तो माता-पिता ने एक करीबी रिश्तेदार के यहां रहने के लिए भेज दिया। वे कुछ साल उसके यहां रहे। रिश्तेदार बहुत कठोर स्वभाव का था। उस समय जेम्स का मन करता था कि वे कोई खिलौना खरीदें, लेकिन रिश्तेदार से डरते थे, क्योंकि वह अपने बच्चों को भी खिलौने लाकर नहीं देता था। इस घुटनभरे माहौल में पले-बढ़े जेम्स की युवावस्था संकट से घिर गई। उनके मन में कहीं न कहीं खिलौनों के प्रति लगाव दबा रहा, जो अब इस रूप में सामने आ रहा था।
मनोचिकित्सक ने जेम्स को परामर्श दिया कि उनके पास जितने भी खिलौने हैं, वे अनाथ और ग़रीब बच्चों को दे दें, उनकी खुशी में अपने बचपन की खुशी तलाशें। जेम्स ने यही किया और जल्द ही अपनी ‘लत’ से निजात पा गए। हमारा वही रवैया एक-दूसरे के प्रति होना चाहिए, जो जेम्स की सहकर्मी का था। जो भावनाएं किसी कारणवश मन में दबी रह जाती हैं, वे कालांतर में हानिकारक भी सिद्ध हो सकती हैं। इन्हें अपनत्व और परामर्श से सुलझाया जा सकता है।