— अशोक त्रिपाठी —
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि संभवामि युगे-युगे अर्थात सभी युगों में उत्पन्न होता रहूंगा। कृष्ण का यह वचन सिर्फ अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि सम्पूर्ण धरा के लिये है। उन्होंने पर्यावरण के संरक्षण का जितना खूबसूरत संदेश दिया है, उतना किसी भी पारलौकिक शक्ति के अवतरण में नहीं दिखाई पड़ता।
भगवान कृष्ण की बाल लीलाएं देखिए। कृषि प्रधान देश में गोवंश के महत्व को उन्होंने बताया है। स्वयं गाय चराने वन में जाते थे। गाय पालना एक सम्मान का विषय होता था। एक लाख गायें पालने वाले को ही नंद की उपाधि दी जाती थी। गाय का पालन करने वाला ही गोपाल कहलाता था। भगवान कृष्ण का एक नाम गोपाल भी है। द्वापर युग में ही नहीं उससे पूर्व त्रेता युग में भी गाय के महत्त्व को दर्शाया गया है।
भगवान श्रीराम और सीता का विवाह होने पर सींगों को सोने से मढ़ाकर दान किया गया था। एक गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध तक हुआ था पर्यावरण को शुद्ध करने में गोवंश का बहुत महत्व होता है। भगवान कृष्ण ने गोवंश के संवर्द्धन का भरपूर प्रयास किया। इसी के तहत इन्द्र की पूजा को बंद कराकर गोवर्द्धन पर्वत की पूजा शुरू करायी क्योंकि गोवर्द्धन पर्वत पर गोवंश को ब़ढावा देने का अनुकूल वातावरण रहता था।
इसके अतिरिक्त जल प्रदूषण को दूर करने में भी श्रीकृष्ण ने अहम भूमिका निभायी है। यमुना में नहाते हुए गोपियों के चीर हरण की कथा तो मनोरंजन के रूप में ली गयी है लेकिन काली नाग को नथने की कथा जल प्रदूषण से ही जुड़ी है।गोकुल के पड़ोस से ही यमुना नदी का एक हिस्सा इतना प्रदूषित हो गया था कि उसका पानी पीने से जानवर मर जाते थे। इंसान तो उस पानी को नहीं पीते थे क्योंकि उन्हें उसके बारे में पता था लेकिन गोवंश में इतनी समझ कहां होती है कि वह तय कर सके कि कौन पानी पीना चाहिए अथवा कौन नहीं पीना चाहिए।
इसके अलावा चरने के बाद जानवरों को जब बहुत ज्यादा प्यास लगती है तब वे पानी की तलाश में निकल पड़ते और जैसे ही पानी दिखा उसे पीने लगते हैं। भगवान कृष्ण ने देखा था कि कितने ही पशु उस कालीदह का पानी पीने से मर चुके हैं और गांव वालों का यह भ्रम भी उन्हें दूर करना था कि इस पानी में कोई जहरीला सांप रहता है। द्वापर युग की इस कहानी को इस दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि भगवान कृष्ण ने बचपन में ग्वाल वालों के साथ उसी काली दह के पास गेंद खेलने का निश्चय क्यों किया और जान बूझकर गेंद उस पानी में क्यों फेंकी? यह भी हो सकता है कि वहां पर कुछ ऐसी जहरीली वनस्पतियां हों, जिनके चलते वहां का पानी जहरीला हो गया हो।
बहरहाल कारण कुछ भी हो लेकिन कृष्ण ने उस काली दह को स्वच्छ जल में बदला था। इससे साफ पता चलता है कि कृष्ण ने जल प्रदूषण को दूर करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भाद्र माह की कृष्ण अष्टमी को भगवान कृष्ण का जन्म दिन सम्पूर्ण भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में मनाया जाता है। भारतीय मूल के लोग जहां भी रहते हैं, वहां भारतीय पर्व और त्योहार मनाते हैं। इस बार कृष्ण जन्माष्टमी 3 सितम्बर को मनायी जा रही है।
श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जन्मोत्सव है। योगेश्वर कृष्ण के भगवदगीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार श्रावण माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया।
चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अतः इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जाती है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है।
जन्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। रासलीला का आयोजन भी होता है। कृष्ण जन्माष्टमी पर भक्त भव्य झांकी सजाते स़डकों, बाजारों झुला, श्री लाडू गोपाल के लिए कप़डे और उनके प्रिय भगवान कृष्ण की मूर्ति खरीदते हैं। सभी मंदिरों को खूबसूरती से सजाया जाता है और भक्त आधी रात तक इंतजार करते हैं ताकि वे देख सकें कि उनके द्वारा बनाई गई खूबसूरत खरीद के साथ उनके बाल गोपाल कैसे दिखते हैं।
स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो जयंती नाम से संबोधित की जाएगी।
वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है।
इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है। श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है।
इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे। व्रजमण्डलमें श्रीकृष्णाष्टमीके दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें ब़डे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रों से मंगल ध्वनि बजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। (हिफी)