बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के सिद्धाचल स्थूलभद्र धाम में विराजित आचार्यश्री चंद्रयशसूरीश्वरजी म. सा. ने कहा कि जो व्यक्ति जड़-चेतन के भेद को पहचानता है, पुद्गल(शरीर) के स्वभाव को जानता है वही राग-द्वेष रहित मध्यस्थ भाव को अपना सकता है। जिस तरह कीचड़ में खिला कमल कीचड़ के संग होने पर भी मलिन नहीं होता, उसी तरह नश्वर पदार्थो के बीच रहकर भी मध्यस्थ भाव में रची आत्मा पुद्गलों से प्रभावित नहीं हो सकती।
हमारी मनोकामनाओं पर, आशाओं पर, महत्वकांक्षाओ पर हमें नियंत्रण रखना होगा। आशाओं का दासत्व हमें कभी स्वीकार नहीं करना है। पुद्गलो का स्वभाव परिवर्तनशील है। इस सत्य को जानने वाला व्यक्ति निंदा, प्रशंसा में समवृति को नहीं छोड़ता। संसारी संबंधों में भी अनित्यता है। सारे रिश्ते-नाते इस भव तक ही सीमित है।
इस भव के सगे संबंधी भी सदा का साथ निभाने वालों में नहीं आते क्योंकि हर रिश्ते की अपनी अवधि होती है। ऋणानुबंध हो तब तक ही साथ निभता है या निभाया जाता है। रिश्तों का रूप भी परिवर्तनशील है। अनेक संबंध केवल स्वार्थ प्राप्ति तक सीमित रह जाते हैं। अनेक बार स्वार्थ, अहं या फिर संपति के कारण संबंधों में संघर्ष उत्पन्न होते है।
मगर मोहासक्त बनकर, इन संबंधों के शाश्वत मानकर हमें इस कर्म लीला में फंसना नहीं चाहिए। सांसारिक रिश्ते-नाते भी पुद्गलों की तरह परिवर्तनशील है। इस बात का अहसास सदा मन में होना जरुरी है। संपति के साथ रहकर, वैभव प्राप्त करने पर भी हमारी मानसिकता को हमें गिराना या संकुचित नहीं करना चाहिए। संपति की सार्थकता इसके शुभ उपयोग में होती है।
जिस तरह विशाल जल संपति का स्वामी होने पर भी समुद्र किसी की प्यास नहीं बुझा सकता, उसी तरह करोड़ों की संपत्ति का मालिक होने पर भी संकुचित मानसिकता का व्यक्ति किसी की मदद नहीं कर सकता। पुदगल आसक्ति से विमुक्तता से ही हमारे जीवन का उत्थान होगा।
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