राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने यह उचित ही कहा है कि विदेशियों के आक्रमण के कारण आयुर्वेद का प्रसार रुक गया था, लेकिन अब उपचार की इस प्राचीन पद्धति को फिर से मान्यता मिल रही है। आयुर्वेद के बारे में एक भ्रांति है कि यह मात्र चिकित्सा विज्ञान है, जबकि चिकित्सा तो इसका एक हिस्सा है। यह असल में जीवन जीने का विज्ञान है, जो मनुष्य को रोगमुक्त ही नहीं करता, बल्कि रोगों से दूर रहते हुए अच्छे स्वास्थ्य को कैसे कायम रखें, इस पर भी बहुत जोर देता है।
यह सच है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दिनों में आयुर्वेद को कमतर साबित करने की बहुत कोशिशें की गईं। इसे मात्र जंगली जड़ी-बूटियों और काढ़े की पोथी बताकर हम भारतीयों के मन में यह धारणा बैठाने का प्रयास किया गया कि जो कुछ तुम्हारे पूर्वजों का है, वह सब मिथ्या है; दिव्य और सच्चा ज्ञान वही है, जो लंदन से आया है! जबकि वास्तविकता यह है कि जब यूरोप में सभ्यता का उदय भी नहीं हुआ था, भारत में चरक, सुश्रुत जैसे अनेक सिद्ध पुरुषों ने अपने दिव्य अनुभवों को संजोकर मनुष्य को कम से कम सौ साल तक जीने का मंत्र दे दिया था, जिसमें क्या करें, क्या लाएं, कैसे पकाएं, कैसे खाएं, कितना खाएं, कब सोएं, कितने समय तक सोएं, कब उठें, दैनिक कार्यों से कैसे निवृत्त हों, क्या सोचें और कैसे और कितना चलें ... जैसी अनगिनत और छोटी-छोटी बातें शामिल हैं।
जिस युग में आजकल की तरह संचार और शोध के साधन नहीं थे, तब एक-एक बिंदु पर विस्तार से लिखना बताता है कि हमारे उन ऋषियों, मनीषियों, वैद्यों आदि ने संसार के कल्याण की कामना के लिए कितना समय वनों में तपस्या करते हुए बिताया होगा!
तपस्या मात्र ध्यान एवं मंत्रोच्चारण नहीं है। एक-एक जड़ी-बूटी, रोग के लक्षण, कारण एवं उपचार पर ज्ञान अर्जित करना और उसे लिखना ... यह भी महान तपस्या है। निस्संदेह ब्रिटिश शासन में ऐलोपैथी ने बहुत प्रगति की है। इस पद्धति के चिकित्सक देश-दुनिया में मानवता की सेवा कर रहे हैं। उनके योगदान को कम नहीं आंका जा सकता। ऐलोपैथी में बहुत शोध हो रहे हैं, जिन्होंने संसार को कई रोगों और महामारियों से मुक्ति दिलाई है। ऐलोपैथी हो या अन्य चिकित्सा पद्धति, किसी के साथ विरोध होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि आखिरकार सबका उद्देश्य तो जीवन की रक्षा करना है।
लेकिन असल सवाल यह है कि हम आयुर्वेद को वह दर्जा और सम्मान क्यों नहीं दिला पाए, जिसे पाने का यह हकदार है। आयुर्वेद की औषधियां बहुत प्रभावी होती हैं। बल्कि ऐसे कई उदाहरण हैं, जब रोगी चारों ओर से थक-हारकर आयुर्वेद की शरण में आया और यहां उसे स्वास्थ्य-लाभ हुआ। आज जरूरत इस बात की है कि आयुर्वेद में न केवल शोध को बढ़ावा दिया जाए, बल्कि आम जनता के लिए यह सुलभ भी हो। आयुर्वेद की प्रतिभाओं को प्रोत्साहन मिले। उनके ज्ञान को अंतरराष्ट्रीय मंच दिया जाए।
जब तक आम लोगों को आयुर्वेद से नहीं जोड़ा जाएगा, उस गौरव की प्राप्ति अत्यंत कठिन है। आयुर्वेद, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा को बढ़ावा देने के लिए डिजिटल माध्यमों का अधिकाधिक उपयोग किया जाए। आयुर्वेद के उत्पादों की लागत में कमी आए, इसके लिए उन्हें आर्थिक प्रोत्साहन और कुछ छूट का प्रावधान किया जाए। निश्चित रूप से आयुर्वेद में वह शक्ति है, जो हमें स्वस्थ, सुखी एवं शतायु बना सकती है।