ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने अतीत में की गईं 'ग़लतियों' से कोई शिक्षा न लेने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर रखी है। गुजरात विधानसभा चुनाव में मुद्दों पर बात हो रही थी कि कांग्रेस ने मोदी को ही मुद्दा बना दिया। उसका यह दांव हर बार उसे ही नुक़सान पहुंचाता रहा है। '... का सौदागर', 'चायवाला', '... आदमी' और 'चौकीदार ही ... है' — जैसे जुमले कांग्रेसी 'बयानवीरों' के ऐसे तीर साबित हुए, जिन्होंने अपने ही महारथियों के कवच बींध दिए थे।
मणिशंकर अय्यर के वो बयान आज भी सोशल मीडिया में वायरल होते रहते हैं। अब इस पार्टी के नए-नवेले अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की वजह से गुजरात विधानसभा चुनावों में ‘रावण’ का आगमन हो गया, जिसे मोदी ने हाथोंहाथ लिया है। मोदी अपने प्रतिद्वंद्वी को उसी के अस्त्र से शिकस्त देने की कला का कई बार प्रदर्शन करते आए हैं।
कांग्रेस नेताओं ने इस बार भी उन्हें यह अवसर दे दिया कि वे जनता के समक्ष इसे ख़ुद से और गुजराती अस्मिता से जोड़कर अपील करें। मोदी ने की भी। उन्होंने अहमदाबाद में लंबे रोड शो और तीन रैलियों को संबोधित करते हुए कांग्रेस को जमकर आड़े हाथों लिया और यह आह्वान कर दिया कि जनता कांग्रेस को सबक सिखाए।
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी 'भारत जोड़ो' यात्रा में पसीना बहा रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी की ओर से चुनावी मौसम में ऐसी टिप्पणी मेहनत पर पानी फेर सकती है। कांग्रेस को जरूरत नहीं कि वह हर चुनाव में मोदी को कोई विवादास्पद 'उपाधि' दे। अभी उसे ज़िम्मेदार विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करते हुए ऐसे मुद्दों को उठाना चाहिए, जिनसे सर्वाधिक जन महत्व जुड़ा हुआ हो। शिक्षा, रोज़गार, खेती, उद्योग समेत अनगिनत मुद्दे हैं, जो सीधे-सीधे जनता से जुड़े हैं। अगर वह उन पर बात करती तो निस्संदेह जनता के बीच उसकी आवाज़ ज़्यादा प्रभावी होती।
इस बार गुजरात में मुकाबला कड़ा है। आम आदमी पार्टी के मैदान में कूदने और कहीं-कहीं एआईएमआईएम, बागियों तथा निर्दलीय प्रत्याशियों के जोर से वोटों का बंटवारा हो सकता है। ये किसके किले में सेंध लगाएंगे, यह तो चुनाव परिणाम से ही मालूम होगा, लेकिन इतना तय है कि अब पार्टियों को धरातल पर काम करना होगा। बयानबाज़ी के वोटों में तब्दील होने का समय निकल चुका है।
इस बात को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भलीभांति समझ गए मालूम होते हैं। एक समय था, जब मोदी के ख़िलाफ़ उनके तीखे बयान आए दिन ट्विटर पर छाए रहते थे। उससे केजरीवाल को लाइक्स तो खूब मिले, लेकिन वोट का खाता खाली ही रहा। लोकसभा चुनावों में उनके कई प्रत्याशियों की ज़मानतें जब्त हुईं। ख़ुद केजरीवाल बनारस से मोदी के सामने चुनाव हारे। यही सिलसिला विभिन्न विधानसभा चुनावों में चला।
उधर, इस मामले पर मोदी शांत, कोई ट्वीट नहीं, कोई बयान नहीं ...। आख़िरकार केजरीवाल समझ गए कि यह बयानबाज़ी उन्हें ही नुक़सान पहुंचा रही है, इसलिए उन्होंने रणनीति बदल दी। अब वे केंद्र सरकार की आलोचना करते दिख जाते हैं, लेकिन मोदी के प्रति उनके रवैए में काफ़ी नरमी आ गई है। जो बात कांग्रेस दो दशकों में नहीं समझ पाई, उसे केजरीवाल बहुत जल्द समझ गए। अब वे मुद्दे को ही मुद्दा बनाते हैं, मोदी को मुद्दा नहीं बनाते हैं, क्योंकि उन्हें सबक मिल गया कि जिस अस्त्र से वे मोदी पर वार करेंगे, वह उलटे उन्हीं पर प्रहार करेगा।
कांग्रेस के लिए यह भी ख़तरे की घंटी है कि पंजाब में 'आप' ने उसे भारी नुक़सान पहुंचाया। इस बार तो 'आप' सत्ता में आ गई। उससे पिछले विधानसभा चुनाव में भी उसने कांग्रेस के कई किले ढहा दिए थे। पंजाब में बदलते सियासी समीकरणों के बीच कांग्रेस के कई नेता भाजपा में आ गए, जिनमें कैप्टन अमरिंदर सिंह, सुनील जाखड़ और जयवीर शेरगिल जैसे नाम हैं।
कांग्रेस को तय करना होगा कि वह भारतीय लोकतंत्र में ख़ुद को अगले एक दशक में कहां देखना चाहती है। उसे आंतरिक कलह पर लगाम लगानी होगी और जन महत्व के मुद्दों पर ध्यान देते हुए ख़ुद को रचनात्मक भूमिका में पेश करना होगा। ग़ैर-ज़रूरी बयानों से न उसका भला होगा और न जनता का।