राजस्थान के कोटा शहर में तीन कोचिंग छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटना अत्यंत दु:खद एवं चिंताजनक है। इस शिक्षा नगरी में यह क्या हो रहा है? पहले भी यहां कई छात्र ऐसा खौफनाक कदम उठा चुके हैं। आखिर हमारे ये नौनिहाल ज़िंदगी से इतने निराश क्यों हो गए कि इन्होंने इसका दामन ही छोड़ दिया?
अगर ये उन नाजुक लम्हों में हिम्मत रखते तो यकीनन एक दिन कुछ उल्लेखनीय करते, जिन पर सबको गर्व होता। घर-परिवार से बहुत दूर ये बच्चे उपलब्धि हासिल करने के लिए आए थे, मगर अफसोस कि अपने पीछे परिजन और साथियों की आंखों में आंसू और कई सवाल छोड़ गए।
अब प्रशासन और समाज की जिम्मेदारी है कि उन सवालों के जवाब तलाशे। सबसे बड़ा सवाल तो यही है- जो बच्चा पढ़ाई में इतनी मेहनत कर यहां तक पहुंचता है, वह किस मजबूरी के कारण ऐसा कदम उठाता है? अब तक विभिन्न मामलों में जो बिंदु मिले हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि बच्चों पर पढ़ाई का बहुत दबाव होता है और वे कहीं न कहीं तालमेल बैठाने में खुद को असमर्थ पाते हैं। समय से पहले पाठ्यक्रम पूरा करना, टेस्ट, दोहराव और परीक्षा ... यहां तक पहुंचते-पहुंचते कई बच्चों के मन में ऐसे सवाल उमड़ने लगते हैं, जिनका उन्हें संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता।
कई बार उन्हें लगता है कि टेस्ट में कम नंबर आ गए तो वे क्लास में पिछड़ जाएंगे। उधर, परिजन बहुत ज्यादा उम्मीदें लेकर बैठ जाते हैं। उनके जरिए सब रिश्तेदारों तक पहले ही संदेश पहुंच जाता है कि हमारा बच्चा कोटा गया है, अब तो डॉक्टर/इंजीनियर बनकर ही लौटेगा!
चारों ओर से उम्मीदों का दबाव और मन में उठतीं आशंकाओं के भंवर में फंसे उस बच्चे को जरूरत होती है एक ऐसे मार्गदर्शक की, जो उसे तनाव का सामना करने, हिम्मत न हारने और भरपूर उत्साह के साथ पढ़ाई में जुटने का मंत्र दे। यह भी देखा गया है कि जब इन परीक्षाओं के परिणाम आते हैं तो उससे निराश होकर कुछ बच्चे आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं।
वे उस समय यह महसूस करते हैं कि अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। अब दोस्तों को क्या जवाब देंगे? उन रिश्तेदारों का कैसे सामना करेंगे, जिन तक यह समाचार पहुंचाया गया था कि हमारा बच्चा डॉक्टर/इंजीनियर बनकर आएगा? मैं उन तानों का सामना कैसे करूंगा/गी, जो अब उनकी ओर से दिए जाएंगे?
अगर परिचितों/रिश्तेदारों के यहां किसी बच्चे का परीक्षा परिणाम अच्छा आया और दूसरा फेल हो गया तो लोग तुलना करनी शुरू कर देते हैं। इन सबके मिश्रित प्रभाव से बच्चे के मन में बेचैनी, घबराहट, कुंठा, अवसाद, तनाव और आत्मघाती प्रवृत्ति घर करने लगती है, जिसका इलाज डांट-डपट में नहीं, बल्कि अपनत्व, प्रेम और उचित मार्गदर्शन में है। जिन लम्हों में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, उनसे सकुशल निकलकर सकारात्मक सोच पैदा हो जाए तो कोई बच्चा गलत कदम नहीं उठाएगा।
इसके लिए कोचिंग संस्थाओं के वातावरण में भी सुधार जरूरी है। यहां बच्चों को सिर्फ पोथियां न पढ़ाते रहें, उन्हें जीवन के महत्व, उसके उद्देश्य, सकारात्मक सोच आदि के बारे में भी सिखाएं। बेशक उन्हें जीतना सिखाया जाए, लेकिन यह भी सिखाया जाए कि अगर हार जाएं तो उसका सामना कैसे करें। कम नंबर आना, टेस्ट में सफल नहीं होना, किसी अवधारणा को समझ नहीं पाना या देर से समझना ... यह अपराध नहीं है।
हम मनुष्य हैं। हम सबकी क्षमताएं अलग-अलग हैं। हम सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक खुद में सुधार करते हुए यहां तक पहुंचे हैं। इसलिए खुद में सुधार करें, निखार लाएं। असफलता का भी उत्सव मनाएं, उसे जीवन के एक हिस्से के तौर पर स्वीकार करें और आगे बढ़ते जाएं।
याद करें, कुरुक्षेत्र की वह रणभूमि, जहां महान धनुर्धर अर्जुन भी एक बार निराश हो गए थे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश देकर आशा का संचार किया। गीताज्ञान सुनकर अर्जुन जय-पराजय के बंधन से ऊपर उठ गए और परिणाम पूरे संसार ने देखा। तो हे नौनिहालो! अपने भीतर के अर्जुन को जगाओ और निराशा को त्यागकर पूर्ण मनोयोग से जुट जाओ। यह जीवन अनमोल है। इसे क्षणिक आवेश की भेंट कदापि न चढ़ाओ।