भारत के जिस गौरवमय अतीत का उल्लेख किया जाता है, उसमें शिक्षकों का महान योगदान था। उस ज़माने में चक्रवर्ती सम्राटों से ज्यादा आदर और ज्यादा रौब शिक्षकों का होता था, क्योंकि उन (सम्राटों) के निर्माता तो वे ही थे। इसीलिए हमारा देश 'विश्वगुरु' कहलाया। आज भी ऐसे अनेक शिक्षक हैं, जो अपने कर्तव्यों के प्रति पूरी तरह समर्पित एवं सेवाभावी हैं, लेकिन इस पेशे में कुछ ऐसे लोग आ गए हैं, जो न केवल अपने पद, बल्कि मानवता को भी शर्मसार कर रहे हैं।
दिल्ली नगर निगम के एक स्कूल में पांचवीं कक्षा की छात्रा पर कैंची से हमला करने और उसे पहली मंजिल से फेंकने का आरोप उसी की शिक्षिका पर लगा है। जानकर आश्चर्य होता है। कोई शिक्षिका अपनी छात्रा के साथ ऐसा कैसे कर सकती है? इसी तरह उत्तराखंड के रूड़की में एक मदरसे के शिक्षक पर आरोप है कि उसने अपने छात्र को इतना पीटा कि उसने इलाज के दौरान दम तोड़ दिया।
हमारी संस्कृति तो यह कहती है कि किसी बच्चे को माता जन्म देती है, लेकिन उसे जीने योग्य शिक्षक बनाता है। जब शिक्षक ही बच्चे की जान लेने लग जाएं तो निश्चित रूप से ऐसे लोग इस पेशे और मानवता दोनों पर कलंक हैं। इन्हें आम अपराधियों से अधिक दंड मिलना चाहिए। शिक्षक वह पद है, जिसे विश्वामित्र, द्रोणाचार्य, सांदीपनि, स्वामी विवेकानंद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसे विद्वान सुशोभित कर चुके हैं।
शिक्षकों का आचरण ऐसा होना चाहिए कि वे सर्वसमाज के लिए आदर्श बनें। अगर शिक्षक ही मर्यादा भंग करेंगे तो किससे सुधार की आशा रखनी चाहिए? शिक्षक होना अपने आप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। कहा भी जाता है कि एक डॉक्टर की भूल कब्र में, वकील की भूल फाइलों में दब जाती है, लेकिन एक शिक्षक की भूल पूरे राष्ट्र में झलकती है। अगर शिक्षक अपने कर्तव्य से विमुख होकर अमर्यादित व्यवहार करेंगे तो उससे समाज में विकृति पैदा होना तय है।
ऐसा नहीं है कि किसी शिक्षक की पिटाई से विद्यार्थी के घायल होने या दम तोड़ने की यह पहली घटना है। हर साल ऐसे कई मामले सामने आते हैं। प्राय: यह देखा जाता है कि संबंधित शिक्षक घरेलू या अन्य कारण से गुस्से में था/थी। फिर वह गुस्सा स्कूल में विद्यार्थियों पर उतार दिया। ऐसी घटनाएं रोकने के लिए जरूरी है कि शिक्षकों के लिए भी मनोवैज्ञानिक परामर्श का सुलभ मंच हो।
यह सर्वथा अनुचित है कि घर का गुस्सा किसी विद्यार्थी पर उतारें, वह भी इतनी क्रूरता से कि उसके अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आ जाए या जान ही चली जाए। घर के मसले सौहार्दपूर्ण माहौल में वहीं सुलझाएं। उनका बोझ स्कूल में बिल्कुल लेकर न जाएं। हां, विद्यार्थियों को अनुशासित करना जरूरी है। इसके लिए उन्हें चेतावनी दे सकते हैं। कुछ सख्ती की जा सकती है, लेकिन न तो शारीरिक दंड दें और न कक्षा के सामने उन्हें अपमानित करें।
अगर कोई विद्यार्थी पढ़ाई में आशानुकूल प्रदर्शन नहीं कर रहा है तो उससे बातचीत कर वजह पूछें, उसे प्रोत्साहित करते हुए सुधार लाएं। अगर फिर भी सुधार नहीं हो रहा है तो उसके माता-पिता को बुलाएं। उनके सामने मुद्दा उठाएं।
देश में हर महीने सोशल मीडिया पर ऐसे बच्चों की तस्वीरें वायरल होती रहती हैं, जिन्हें किसी शिक्षक ने पीट-पीटकर घायल कर दिया या जान ले ली। यह सच है कि कोई शिक्षक नहीं चाहेगा कि वह किसी बच्चे की जान ले और खुद पर कातिल होने का कलंक लगवाए। एक क्षणिक आवेश में यह सब हो जाता है, जिसके बाद उसकी नौकरी, प्रतिष्ठा तो जाती ही है। पूरी ज़िंदगी पछतावा होता है।
इधर शिक्षक के परिजन उसके जेल जाने से रोते हैं, उधर बच्चे के परिजन उसके शोक में रोते हैं। इसलिए शिक्षकों को बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। क्षणिक आवेश में लिया गया उनका एक फैसला उन्हें वर्षों के लिए जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकता है। साथ ही दो परिवारों की खुशियां छीन सकता है। वे अपने पद और पेशे की गरिमा के अनुरूप आचरण करें तथा किसी भी विद्यार्थी को शारीरिक दंड देने से परहेज करें।