लोकतंत्र, मानवाधिकार और विश्व शांति का दम भरने वाले अमेरिका का असल चेहरा एक बार फिर बेनकाब हो गया है। उसके विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस का यह कहना कि 'पाकिस्तान को आतंकवाद से अपनी रक्षा करने का अधिकार है', अत्यंत हास्यास्पद है। ये अधिकारी महोदय या तो बड़े मासूम हैं या बड़े शातिर! क्या इन्हें नहीं मालूम कि वे जिस आतंकवाद से अपनी रक्षा करने के पाक के अधिकार की पैरवी कर रहे हैं, उसका जनक भी पाक है?
अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का पाकिस्तान और अफगानिस्तान में बड़ा नेटवर्क है। अमेरिका भलीभांति जानता है कि आतंकवाद की जड़ कहां है, लेकिन यह देश एक ओर तो शांति पर उपदेश देता है, दूसरी ओर पाकिस्तान को आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराता है। यह जगजाहिर है कि पाक के खजाने में बरसने वाले डॉलरों का कहां इस्तेमाल होता है। इस राशि से पाक के फौजी जनरल और वरिष्ठ अधिकारी अपना हिस्सा काटते हैं और एक बहुत बड़ी राशि आतंकवाद को परवान चढ़ाने के लिए खपा देते हैं।
अमेरिका लोकदिखावे के लिए यह राशि विभिन्न उद्देश्यों के लिए देता है, लेकिन आखिरकार वह अमेरिकी जनरलों की जेब से होते हुए दोबारा अमेरिका के बैंकों में ही पहुंच जाती है। उसने पाकिस्तान में रह रहे अफगान शरणार्थियों और पाकिस्तानी मेजबान समुदायों के लिए 'मानवीय सहायता' के रूप में साल 2022 के दौरान 6 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि दी थी। इससे कितने शरणार्थियों को राहत पहुंची, यह जांच का विषय होना चाहिए।
अमेरिका का यह भी दावा है कि उसने साल 2002 से अफगान शरणार्थियों के लिए दो अरब 73 करोड़ अमेरिकी डॉलर से ज्यादा की 'मदद' दी है। उसने चार दशक से अधिक समय तक अफगान शरणार्थियों की उदारता से 'मेजबानी' करने के लिए पाकिस्तान को धन्यवाद भी दिया है।
पाकिस्तान द्वारा की गई 'मेजबानी' विचित्र है। उसने पहले तो आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण शिविर शुरू किए। फिर उन्हें अफगानिस्तान भेजा, ताकि वे तत्कालीन सोवियत संघ की सेना पर हमला करें। इससे अफगानिस्तान में अराजकता और अफरा-तफरी का माहौल पैदा हुआ। सवाल है- ऐसी स्थिति में आम अफगान कहां जाता? स्वाभाविक है कि वह पाकिस्तान का रुख करेगा। तो यह 'मेजबानी' कहां से आ गई?
पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में आतंकवाद की आग भड़काई थी, इसलिए अफगानियों का यहां आना स्वाभाविक था। पाकिस्तान के फौजी जनरलों ने यह सब करने के लिए सीआईए से मोटी रकम वसूल की थी। चूंकि आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर, उन्हें हथियार मुहैया कराने से लेकर अफगानिस्तान भेजने तक उसने सक्रिय भूमिका निभाई थी।
जब सोवियत संघ का पतन हो गया तो अमेरिका के संसाधनों से पलने वाले आतंकवादी संगठन अगला निशाना ढूंढ़ने लगे, वे पाक में सत्ता का ख्वाब देखने लगे। 9/11 के बाद बदलीं परिस्थितियों के मद्देनजर अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया, लेकिन पाकिस्तान के लिए उसका रुख नरम ही रहा। यहां तक कि कुख्यात आतंकवादी ओसामा-बिन लादेन के एब्टाबाद में खात्मे के बाद भी अमेरिका पाकिस्तान से यारी निभाने से बाज़ नहीं आया।
दरअसल अमेरिका नहीं चाहता कि आतंकवाद का खात्मा हो। उसके लिए निजी स्वार्थ सर्वोपरि हैं। अगर आतंकवाद को समूल नष्ट करना उसका उद्देश्य होता तो वह अपनी मिसाइलें रावलपिंडी की ओर दागता, जहां आतंकवाद का सबसे बड़ा गढ़ है। अमेरिका भविष्य में पाकिस्तान को सहायता के नाम पर टुकड़े फेंकता रहेगा और पाक फौज आतंकवादियों को पालती रहेगी।
अगर आतंकवाद को खत्म करना है तो हमें अपने संसाधनों और अपनी भुजाओं में और बल पैदा करना होगा। नई-नई तकनीकें खोजनी होंगी। अपने दम पर आत्मनिर्भर बनना होगा। अमेरिका दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहता है, जिसकी विश्वसनीयता सदा ही संदिग्ध रही है।