दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना द्वारा भारतीय सेना के संबंध में विवादित ट्वीट मामले में जेएनयू की पूर्व छात्र नेता शेहला रशीद के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देना उचित ही है। देश में कथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग इस बात में आनंद की अनुभूति करता है कि कब और कैसे सुरक्षा बलों को अपमानित किया जाए। ये अपने देश के उन सैनिकों को हमेशा खरी-खोटी सुनाते ही पाए जाते हैं, जो वक्त आने पर इनके लिए भी अपनी जान कुर्बान करने से पीछे नहीं हटेंगे।
अगर ये कथित बुद्धिजीवी व क्रांतिजीवी सुरक्षा बलों की स्वस्थ आलोचना करें, प्रणाली में सुधार के उपाय बताएं तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन इनका ध्येय सिर्फ सवाल खड़े करना है। जब पाक प्रायोजित आतंकवाद उरी और पुलवामा में भारतीय जवानों का लहू बहाता है तो ये 'बुद्धिजीवी' इस बात को लेकर सवाल उठाते हैं कि यह घटना क्यों हुई, अब क्या कार्रवाई होगी, कब होगी, कार्रवाई में देर क्यों हो रही है! गोया कार्रवाई कोई आलू-मटर की सब्जी है कि घंटेभर में परोस दी जाएगी। लेकिन जब भारतीय जवान पीओके में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक करते हैं, बालाकोट में एयर स्ट्राइक करते हैं तो ये ही 'बुद्धिजीवी' फिर सवाल उठाते हैं कि यह कार्रवाई क्यों की, क्या इससे तनाव नहीं बढ़ेगा, क्या यह तरीका सही है, कार्रवाई की भी है या झूठा दावा किया जा रहा है!
उक्त दोनों कार्रवाइयों के समय भारतीय सुरक्षा बलों को कमतर दिखाने के लिए भारत में जो ट्वीट किए गए, उन्हें पाकिस्तानी मीडिया ने हाथोंहाथ लिया था। क्या हमें राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में कुछ भी लिखने या बोलने से पहले परिपक्वता नहीं दिखानी चाहिए?
एक 'अतिक्रांतिकारी' नेता ने तो उस समय यह भी मांग कर डाली थी कि भारतीय सेना ने पीओके में जो कार्रवाई की थी, उसके सबूत सार्वजनिक कर देने चाहिएं। धन्य हैं ऐसे नेता, जो अपने वोटबैंक को साधने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को दांव पर लगाने से भी परहेज नहीं करते! क्या वे चाहते हैं कि भारत इस मिशन को अंजाम देने के लिए रास्तों समेत हर गोपनीय जानकारी सार्वजनिक कर दे, ताकि भविष्य में फिर ऐसी कार्रवाई करने की जरूरत हो तो उसमें बाधा आए?
अक्सर जम्मू-कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति को लेकर खूब सवाल उठाए जाते हैं। यह एक तरह का फैशन चल पड़ा है कि 'अगर आप अपने ही सुरक्षा बलों को अत्याचारी और उद्दंड बताएंगे तो बहुत उदारवादी, ऊंची सोचवाले और विश्व-मानव कहलाएंगे। हो सकता है कि इसी के लिए आपको नोबेल पुरस्कार के लिए नामित कर दिया जाए! अगर नोबेल न मिला तो कोई बात नहीं। ऐसे दर्जनों इनाम हैं, जो पैसा और पहचान दिला देंगे। अख़बारों में सेलेब्रिटी के साथ फोटो छपेगी। फिर चाहे पत्थरबाजों के 'मानवाधिकार' को लेकर खुलकर बोलें, कोई दिक्कत नहीं; क्योंकि सैनिकों के तो मानवाधिकार होते नहीं! अगर किसी ने आपत्ति की तो ग्रेटा और मिया खलीफा पक्ष में ट्वीट करने आ जाएंगी।'
पिछले साल नवंबर में अभिनेत्री ऋचा चड्ढा ने भी गलवान के बलिदानियों पर अत्यंत आपत्तिजनक ट्वीट किया था। जब पूर्व सीडीएस जनरल बिपिन रावत दर्जनभर जवानों के साथ हेलिकॉप्टर हादसे में वीरगति को प्राप्त हुए तो कुछ लोग सोशल मीडिया पर खुशी मना रहे थे। वे उन लम्हों में अपने मन की बात मन में दबाकर नहीं रख सके, इसलिए बेनकाब हो गए।
हमें सुरक्षा बलों के प्रति (कुछ) युवाओं में पनप रही इस सोच को गंभीरता से लेना होगा। अगर (कुछ) देशवासी ही ऐसी सोच रखने लगेंगे तो हमें शत्रुओं की क्या आवश्यकता है? इनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई के अलावा राष्ट्रवाद की शिक्षा का कार्यक्रम होना चाहिए। अगर संभव हो तो इन्हें कुछ दिनों के लिए सुरक्षा बलों के बेहद मुश्किल कामकाज और उनके बलिदान के इतिहास से रूबरू कराया जाए।