इस वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों और अगले वर्ष लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस महागठबंधन की राह तैयार कर रही है, जो उसके लिए ज़रूरी भी है और मजबूरी भी है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन में थोड़ा सुधार दिखाई दिया, लेकिन कुल मिलाकर हालत पतली ही रही। भारतीय लोकतंत्र में समान विचारधारा/हितों के दलों का गठबंधन होना कोई नई बात नहीं है।
भाजपा के नेतृत्व वाले राजग में कई दल शामिल हैं। कांग्रेस ने संप्रग की छतरी तले लगातार दो सरकारें चलाईं। अब रायपुर महाधिवेशन में महागठबंधन का संकेत देकर वह उन दलों, जिनका भाजपा से विरोध है, को यह संदेश देना चाहती है कि 'आप अपने राज्य में बड़े दल होंगे, अगर केंद्र में भाजपा को हराना है तो हमसे हाथ मिलाना होगा।'
वास्तव में कांग्रेस एक बार फिर वही ग़लती करती नजर आ रही है, जो उसने वर्ष 2014 और 2019 में की थी। इन दोनों लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का पूरा जोर भाजपा को हराने पर था; दूसरों शब्दों में कहें तो मोदी का 'विजयरथ' रोकने पर। कांग्रेस ने वर्ष 2014 में पूरा जोर इस बात पर लगा दिया था कि किसी भी कीमत पर मोदी को सत्ता में आने से रोका जाए।
उससे थोड़ा पहले, वर्ष 2013 में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में प्रचार के लिए भाजपा ने मोदी को कमान सौंपी तो कांग्रेस का अभियान भाजपा को हराने से शुरू हुआ था, जो धीरे-धीरे मोदी को हराने पर आ गया। मोदी के निजी जीवन पर हमले किए गए। नतीजा यह रहा कि पूरा चुनाव मोदी बनाम कांग्रेस हो गया, जिसमें भाजपा जीत गई।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजने से पहले पाकिस्तान के बालाकोट में एयरस्ट्राइक की गई थी। पाक ने विंग कमांडर अभिनंदन को हिरासत में ले लिया था, जिन्हें बाद में रिहा करना पड़ा। पूरा देश प्रधानमंत्री की सराहना कर रहा था।
उधर, कांग्रेस नेताओं को समझ में नहीं आ रहा था कि इस पर कैसे प्रतिक्रिया दी जाए। वे 'विरोध के लिए विरोध' करने लगे। भावावेश में ऐसे बयान देने लगे कि भाजपा ने उन्हें हाथोंहाथ लिया और जनता में यह संदेश गया कि मोदी ने कठोर फैसला लेकर पाक के खिलाफ कार्रवाई की, लेकिन कांग्रेस नेता वायुसेना के शौर्य पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। लोगों ने इसकी प्रतिक्रिया ईवीएम बटन पर दी और कांग्रेस फिर हार गई। उसके तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी की सीट नहीं बचा सके थे।
क्या वर्ष 2024 में महागठबंधन का फॉर्मूला कोई कमाल कर पाएगा? उससे पहले तो यही सवाल है कि महागठबंधन में शामिल होकर कितने दलों को कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार होगा? क्या प. बंगाल में ममता बनर्जी महागठबंधन में शामिल होंगी? अगर हां, तो वाम दलों का क्या रुख होगा? क्या दिल्ली और पंजाब की सत्ता से कांग्रेस को बाहर करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) उसके खेमे में आएगी? 'आप' ने हालिया गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को तगड़ा नुकसान पहुंचाया था। वह इससे उत्साहित होकर खुद को बड़ी भूमिका में देखना चाहती है। वह कांग्रेस के साथ अपना वोटबैंक क्यों साझा करेगी?
अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो सपा की 'साइकिल' और बसपा के 'हाथी' को कांग्रेस के 'हाथ' के साथ लाना 'टेढ़ी खीर' होगा। बिहार में जदयू और राजद किन शर्तों पर मानेंगे, चूंकि वहां कांग्रेस मजबूत नहीं है? महाराष्ट्र में राकांपा को मनाना आसान नहीं होगा। वहीं, उद्धव ठाकरे की सियासत भंवर में फंसी नजर आ रही है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, लेकिन अभी यहां विधानसभा चुनाव की चुनौती से पार पाना है। खासतौर से राजस्थान में गुटबाजी जोरों पर है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट गाहे-बगाहे एक-दूसरे को आड़े हाथों लेते रहते हैं।
तेलंगाना में बीआरएस को साध पाना मुश्किल होगा। क्या कर्नाटक में सरकार गंवाने के बाद जद (एस) गठबंधन के लिए कांग्रेस पर फिर भरोसा करेगी? कांग्रेस को चाहिए कि वह अपने चुनाव अभियान को 'विरोध के लिए विरोध' और 'मोदी रोको' में तब्दील न होने दे। उसे रचनात्मक भूमिका निभानी चाहिए। उसके पास सरकार चलाने का सबसे ज्यादा अनुभव है, लिहाजा यह बताना चाहिए कि देश के समक्ष वर्तमान समस्याओं का उचित समाधान क्या होना चाहिए। अगर वह मजबूत स्थिति में होगी तो ही अधिक क्षेत्रीय दल उसके साथ आएंगे, अन्यथा 'अपनी ढफली, अपना राग' ही सुनाई देंगे।