उच्चतम न्यायालय ने ‘नफ़रती भाषणों’ के मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए जो टिप्पणी की, वह अत्यंत प्रासंगिक है। उसकी प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि लोकसभा चुनाव होने में लगभग एक साल का समय बचा है। वहीं, इस साल कर्नाटक समेत कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। ऐसे माहौल में तीखे बयानों में बढ़ोतरी हो जाती है। कुछ राजनीतिक दलों के नेता, प्रवक्ता जिस प्रकार आत्म-अनुशासन को लेकर शिथिलता बरत रहे हैं, उसके मद्देनज़र न्यायालय को उन्हें मर्यादा का पाठ पढ़ाना ही होगा। अन्यथा राजनीतिक दल धर्म के नाम पर भड़काऊ बयानबाजी को और भी निचले स्तर पर ले जाएंगे।
बेहतर तो यह होगा कि ऐसे मामलों पर कुछ नेताओं को सजा देकर नजीर पेश की जाए। देश में वोटबैंक की राजनीति के कारण धर्म पर अनुचित टीका-टिप्पणी का लंबा इतिहास रहा है। इसे समय रहते रोका नहीं गया, बल्कि कुछ दलों ने चुनाव जीतने का फॉर्मूला समझकर इसका इस्तेमाल किया। न्यायालय ने सत्य कहा है कि तुच्छ तत्त्वों द्वारा नफरती भाषण दिए जा रहे हैं और लोगों को खुद को संयमित रखना चाहिए।
वास्तव में सोशल मीडिया पर तो स्थिति और खराब है। जो मंच लोगों को जोड़ने के लिए बना था, आज उसका इस्तेमाल फूट डालने और नफरत पैदा करने के लिए हो रहा है। दूसरे समुदायों, उनके धर्मों के खिलाफ आपत्तिजनक सामग्री को बिना सोचे-समझ पोस्ट और शेयर किया जा रहा है। ख़बरों से जुड़े फेसबुक पेजों पर तो एक-दूसरे के खिलाफ ऐसी टिप्पणियों की भरमार है।
कुछ समाचार चैनलों ने आग में घी डालने का काम किया है। इससे न केवल उनकी विश्वसनीयता घटी है, बल्कि समाज का माहौल भी दूषित हुआ है। प्रायः शाम को होने वाली बहसों में राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे नदारद रहते हैं। वहां सांप्रदायिक मुद्दों का बोलबाला होता है। ऐसे सवाल दागे जाते हैं, जिनसे स्टूडियो का माहौल गरमाने में आसानी हो। प्रायः कुछ प्रवक्ता आवेश में आकर भाषा की मर्यादा पार कर जाते हैं।
वे स्वयं की आस्था को सर्वश्रेष्ठ और अन्य की आस्था को कमतर साबित करने की कोशिशों में लगे रहते हैं। जब कोई विवादित और भड़काऊ टिप्पणी कर देता है तो क्षमा मांगने के बजाय उसे सही साबित करने पर अड़ा रहता है। कई बार इन प्रवक्ताओं के बीच मार-पीट की नौबत आ जाती है। सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो वायरल होते रहते हैं। लोग उन्हें मनोरंजन की तरह लेते हैं। सवाल है- ऐसे दृश्यों का लोगों के मन पर कितना प्रतिकूल प्रभाव होता है?
न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने पूर्व प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों को उद्धृत करते हुए सत्य ही कहा कि 'उनके भाषणों को सुनने के लिए दूर-दराज के इलाकों से लोग एकत्र होते थे।' शालीन शब्दों में भी अपनी बात प्रभावी ढंग से कैसे कही जाए, इसके लिए इनके भाषण मिसाल की तरह पेश किए जा सकते हैं। पीठ के इन शब्दों पर ध्यान दें, ‘हर दिन तुच्छ तत्त्व टीवी और सार्वजनिक मंचों पर दूसरों को बदनाम करने के लिए भाषण दे रहे हैं ... भारत के लोग अन्य नागरिकों या समुदायों को अपमानित नहीं करने का संकल्प क्यों नहीं ले सकते?’
आज जिस तरह कुछ राजनीतिक दल देशहित, राष्ट्रवाद और सद्भाव की उपेक्षा कर वोटबैंक और तुष्टीकरण की राह पर आगे बढ़ते जा रहे हैं, उससे वे यह आम धारणा बनाने में काफी हद तक सफल हो चुके हैं कि ‘चुनावी हितों को साधने के लिए सांप्रदायिक टिप्पणियां तो होती हैं, इसमें नई बात क्या है!’ समाचार चैनलों में ‘विशेषज्ञों’ के नाम पर कुछ ऐसे लोग भी बैठा दिए जाते हैं, जिनकी योग्यता संबंधित विषय का ज्ञान नहीं, बल्कि अनाप-शनाप बयानबाजी में निपुणता है। जब किसी बयान से बड़ा विवाद खड़ा हो जाता है तो वे खुद को पाक-साफ बताते हुए पूरा दोष दूसरे पर डाल देते हैं।
पिछले साल एक मामले ने जिस तरह तूल पकड़ा, उससे विदेशों में भारत की छवि बिगाड़ने की कोशिशें की गईं। इन सब पर नियंत्रण के लिए जरूरी है कि टीवी और सार्वजनिक मंचों के माध्यम से सद्भाव को बिगाड़ने वाले तत्त्वों को कोई मौका नहीं दिया जाए। अगर कोई मर्यादा का उल्लंघन करे तो उसे कानून के कठघरे में लाना ही चाहिए। देश में शांति और सद्भाव को कायम रखना हर नागरिक की जिम्मेदारी है। किसी को भी यह इजाजत नहीं होनी चाहिए कि वह अनुचित बयानबाजी कर आजाद घूमे और अन्य लोगों तक ग़लत संदेश पहुंचाने का ज़रिया बने।