चीन द्वारा दूसरे देशों की जमीन हड़पने की भूख कम होने का नाम नहीं ले रही है। वह तिब्बत को पहले ही हड़प चुका है। हांगकांग और जापान के साथ उसका छत्तीस का आंकड़ा है। वहीं, भारत के साथ उसका टकराव दुनिया देख चुकी है। दूसरों को राष्ट्रीय सुरक्षा और चीन की विस्तारवादी नीतियों को लेकर आगाह करने वाला अमेरिका खुद इस मामले में कितना 'लापरवाह' है, इसका अंदाजा फ्लोरिडा के उस बिल से लगाया जा सकता है, जिसे हाल में मंजूरी मिली है।
जब अमेरिकी एजेंसियों को पता चला कि चीन के लोग उनके देश में 'खेती' के लिए बड़ी संख्या में जमीन खरीद रहे हैं, तो वे हरकत में आईं और सरकार को इसके गंभीर खतरों के बारे में सूचना दी। अब यह बिल चीनियों को इससे रोकेगा।
हो सकता है कि भविष्य में अमेरिका के अन्य राज्य भी ऐसे प्रावधानों को लागू करें। जो अमेरिका लोकतंत्र और उदारवाद का सबसे बड़ा पैरोकार होने का झंडा उठाए घूमता है, उसकी जमीन पर चीन धीरे-धीरे 'कब्जा' कर रहा है। वास्तव में खेती तो बहाना है, चीन का असल मकसद कुछ और है।
इन जमीनों को लेने के लिए चीनियों को उनकी सरकार रकम देती है। उसके बाद वे अमेरिका में आकर रहने लगते हैं। वे खेती भी करते हैं। उसके साथ ही चीन के लिए जासूसी करना शुरू कर देते हैं। अमेरिका में पूर्व में चीन के लिए जासूसी करते कई लोग पकड़े जा चुके हैं।
हाल में एक चीनी गुब्बारा सुर्खियों में रहा था, जिसके संबंध में चीन का दावा था कि वह मौसम का अध्ययन करने के लिए छोड़ा गया था। जबकि वह अमेरिका से सूचनाएं एकत्रित कर चीन भेज रहा था। ऐसा नहीं है कि अमेरिका में सिर्फ चीनी खेती के लिए जमीनें ले रहे हैं। वहां करीब 110 देशों के नागरिकों ने जमीनों में निवेश किया है और वे खेती कर रहे हैं। रिपोर्टें बताती हैं कि अकेले चीनियों के पास 3.8 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन है।
चीन ने सोची-समझी 'रणनीति' के तहत अमेरिका के 'लचीले' कानूनों का फायदा उठाया और अलग-अलग राज्यों में अपने लोगों को स्थापित कर दिया। इन जमीनों की कीमत सैकड़ों मिलियन डॉलर में है। अब जाकर अमेरिका की 'नींद' खुली है।
अमेरिका में पहले भी लोग खेती के लिए आते रहे हैं। बल्कि यूं कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि अमेरिका को बनाने और बसाने में उनका बड़ा योगदान है, इसलिए यह देश ऐसे नियमों को तरजीह देता रहा है, जिससे उसकी खेती लायक जमीन का सदुपयोग किया जा सके। इनमें ऐसे देशों के नागरिक भी हैं, जिनके साथ अमेरिका के मधुर संबंध हैं, वे लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते हैं। चीनियों में इसका घोर अभाव है।
चूंकि उन्होंने अपने देश में लोकतंत्र देखा ही नहीं है। वे एकदलीय तानाशाही में पले-बढ़े हैं, जहां हर किसी को राष्ट्रपति के आदेश का पालन करना होता है। इसके अलावा उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। उन्हें चीन अच्छी तरह से 'प्रशिक्षण' देकर अमेरिका भेजता है। कुछ चीनियों ने तो नॉर्थ डकोटा में वायुसेना बेस से महज कुछ दूरी पर कई एकड़ जमीन ले रखी है।
ऐसी संवेदनशील जगह पर चीनियों को जमीन देना कौनसी अक्लमंदी है? उनके बारे में यह भी शिकायत आ रही है कि वे अमेरिका के संसाधनों का जमकर अपव्यय कर रहे हैं। जो फसलें कम पानी में उगाई जा सकती हैं, उन्हें प्राथमिकता नहीं देते। वे ऐसी फसलें उगाते हैं, जिनमें ज्यादा पानी की जरूरत हो। इससे उन्हें फसल तो अच्छी मिल रही है, लेकिन कुछ वर्षों बाद अमेरिका की वह जमीन बंजर हो जाएगी।
अफ्रीका के गरीब देशों में चीन का ऐसा ही खेल जारी है। वहां खेती और खनन के नाम पर चीनी बसते जा रहे हैं, जिनका स्थानीय लोगों से टकराव भी बढ़ रहा है। अमेरिका समेत इन देशों को विचार करना चाहिए कि कहीं चीन ईस्ट इंडिया कंपनी की तर्ज पर उन्हें गुलाम बनाने की दिशा में तो आगे नहीं बढ़ रहा है? अगर एक बार उनकी जमीनों और बाजारों पर ड्रैगन का पंजा जम गया तो छुटकारा पाना बहुत मुश्किल होगा।