हर साल पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस समेत कई 'दिवस' मनाने के बावजूद प्रदूषण को लेकर हालात में खास सुधार नहीं हो रहे हैं। संसाधनों के अतिदोहन और संरक्षण के लिए ठोस कदम न उठाने से समस्या बढ़ती जा रही है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिस्टल में प्रोफेसर ऑफ़ ग्लेशियोलॉजी एंड अर्थ ऑब्जर्वेशन जोनाथन बाम्बर और लैपींरांटा यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर ऑफ़ सोलर इकोनॉमी क्रिश्चियन ब्रेयर ने उचित ही कहा है कि पेरिस जलवायु समझौते को जब वर्ष 2015 में अपनाया गया तो इसके माध्यम से धरती पर मानवता के सुरक्षित भविष्य की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाया गया ... समझौते पर तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के संकल्प के साथ दुनियाभर के 196 दलों ने हस्ताक्षर किए थे ... लेकिन बीच के आठ वर्षों में, आर्कटिक क्षेत्र ने रिकॉर्ड तोड़ तापमान का अनुभव किया, गर्मी की लहरों ने एशिया के कई हिस्सों को जकड़ लिया और ऑस्ट्रेलिया ने अभूतपूर्व बाढ़ और जंगल की आग का सामना किया।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है, जबकि इस दौरान पर्यावरण और धरती को बचाने के लिए खूब नारे लगाए गए? पिछले दिनों सोशल मीडिया पर वायरल एक तस्वीर ने सबका ध्यान आकर्षित किया था। उसमें एक बड़ी इमारत दिखाई गई थी, जिसकी हर खिड़की में एक एसी लगा था। उस तस्वीर का कैप्शन था कि ऐसी ही इमारतों में बैठकर पर्यावरण बचाने पर गंभीर चर्चा होती है! प्राय: लोग पर्यावरण और धरती को बचाने के लिए बातें तो खूब करते हैं, लेकिन अपनी जीवनशैली को नहीं बदलना चाहते।
पिछले साल पाकिस्तान में बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी। लाखों घरों को नुकसान हुआ और करोड़ों लोग प्रभावित हुए थे। वहां महीनों तक बाढ़ का पानी नहीं सूखा था। इस बीच विदेशों से जो मदद आई, उसमें जमकर भ्रष्टाचार हुआ। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसकी जड़ में प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और कई पर्यावरणीय घटनाएं हैं। इसके गंभीर दुष्प्रभाव होते हैं। अत: इस भ्रांति में नहीं रहना चाहिए कि पर्यावरण बचाने की बातें सिर्फ विकसित देशों के लिए हैं, कम विकसित और गरीब देशों का इससे कोई लेना-देना नहीं है!
वास्तव में यह किसी एक देश की नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की समस्या है। आज समुद्र का बढ़ता स्तर ग्लोबल वार्मिंग का अनिवार्य परिणाम है। विशेषज्ञों का कहना सत्य है कि यह बढ़ी हुई भूमि की बर्फ के पिघलने और गर्म महासागरों के संयोजन के कारण है, जिससे समुद्र के पानी की मात्रा बढ़ जाती है। एक शोध कहता है कि समुद्र के स्तर में वृद्धि के मानव-प्रेरित घटक को खत्म करने के लिए हमें पूर्व-औद्योगिक युग (वर्ष 1850 के आसपास) में आखिरी बार देखे गए तापमान पर लौटने की जरूरत है। क्या निकट भविष्य में ऐसा संभव है?
यूं तो तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस का बदलाव बहुत छोटा लग सकता है, लेकिन इसके परिणाम दूरगामी हो सकते हैं। खासतौर से खेती के संबंध में, चूंकि फसलें एक खास तापमान में ही बोई और काटी जाती हैं। अगर तापमान में प्रतिकूल बदलाव हुआ तो उत्पादन प्रभावित हो सकता है। इसका परिणाम अधिक महंगाई के रूप में सामने आएगा।
दुनिया के विभिन्न ठंडे इलाकों में सर्दियों के दौरान जमी हुईं नदियों पर छोटे-बड़े मेले लगते थे। कालांतर में उनमें से कई बंद हो गए या उनकी जगह बदल गई। इसका कारण यह था कि बर्फ की परत इतनी कमजोर हो गई कि वह अधिक लोगों का बोझ सहन नहीं कर सकती थी। दुनिया संसाधनों का अतिदोहन तो करती रही, लेकिन धरती मां की पुकार नहीं सुनी। अब इस पुकार को नहीं सुनेंगे तो धरतीवासियों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।