प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान उनके भव्य स्वागत और भाषणों की खूब चर्चा है। मोदी ने लोकतंत्र, विश्व शांति, आतंकवाद समेत कई बिंदुओं का जिक्र किया, जिन पर उनके विचारों को काफी सराहा जा रहा है। उधर, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा अलग ही राग अलाप रहे हैं। वे भारत को अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर उपदेश दे रहे हैं।
क्या ओबामा नहीं जानते कि हमारे देश में हर नागरिक, जिसमें अल्पसंख्यक भी शामिल हैं, को बराबर अधिकार मिले हुए हैं? जहां तक सुरक्षा का सवाल है तो इस मामले में भी कोई भेदभाव नहीं है। देश में आम नागरिक, चाहे वह किसी भी समुदाय से हो, सबके लिए सुरक्षा का स्तर भी बराबर है।
हां, कुछ समस्याएं हैं, जो कि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में स्वाभाविक हैं। क्या अमेरिका में किसी को कोई समस्या नहीं है? प्राय: यूरोप और अमेरिका के जो नेता मीडिया में चर्चा पाना चाहते हैं, वे भारत को लोकतंत्र, सहिष्णुता, समानता और धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर उपदेश देने लग जाते हैं। ओबामा ने भी यही दांव चला है, इसलिए वे चर्चा में आ गए।
भारत हर भारतीय का है, चाहे वह किसी भी समुदाय से आता हो। यहां ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है, जो अल्पसंख्यकों के हितों के खिलाफ हो। निस्संदेह अल्पसंख्यकों का भारत के विकास में बड़ा योगदान है। वे हर क्षेत्र में नाम कमा रहे हैं।
फिर ओबामा को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी कि 'राष्ट्रपति जो बाइडेन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी बैठक के दौरान बहुसंख्यक हिंदू भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का मुद्दा उठाना चाहिए ... अगर मैं राष्ट्रपति होता और प्रधानमंत्री मोदी के साथ बातचीत करता, जिन्हें मैं अच्छी तरह से जानता हूं, तो मेरा एक तर्क यह होता कि यदि आप भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं करते हैं, तो इस बात की प्रबल आशंका है कि भारत अलग-थलग पड़ सकता है'?
प्राय: अमेरिका के राष्ट्रपति सत्ता से दूर होने के बाद कुछ ऐसा करने की कोशिश में रहते हैं कि उन्हें दुनिया मानवता का मसीहा माने। भले ही उन्होंने पद पर रहते हुए बड़े से बड़े कांड किए हों। आज जो ओबामा भारत को नसीहत दे रहे हैं, जरा उनसे कोई पूछे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में लोगों के अधिकारों की कितनी रक्षा की?
ये ही ओबामा थे, जिनके हुक्म पर सीरिया, इराक, अफगानिस्तान ... समेत कई देशों में ड्रोन हमले किए गए। उनमें कई बार निर्दोष लोग भी मारे गए थे। उसके बावजूद ओबामा शांति का नोबेल पुरस्कार पाकर 'शांति पुरुष' बन बैठे। नोबेल समिति के सचिव रहे गेर लूनेश्टा ने सितंबर 2015 में कहा था कि बराक ओबामा को वर्ष 2009 का नोबेल शांति पुरस्कार देने का फैसला समिति की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। समिति को तो यह उम्मीद थी कि इस पुरस्कार से ओबामा की छवि सुधरेगी, लेकिन इसके विपरीत अमेरिका में ही इस फैसले की निंदा हुई।
बहुत लोगों का तर्क था कि ओबामा का प्रभाव पुरस्कार लायक नहीं था। लूनेश्टा तो यह भी कह चुके हैं कि स्वयं ओबामा यह पुरस्कार मिलने से हैरान थे। उनके कई समर्थकों को लगा था कि शायद कहीं गलती हो गई है। तमाम सवालों के बावजूद ओबामा 'शांति पुरुष' घोषित हुए और अब भारत को शांति, सहिष्णुता व समानता सिखा रहे हैं! वहीं, पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की स्थिति के संबंध में चुप्पी साधे बैठे हैं, जहां इस समुदाय से आने वाला व्यक्ति, चाहे कितना ही काबिल हो, वह प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और सेना प्रमुख जैसे पद पर आसीन हो ही नहीं सकता। वहां असहिष्णुता की पराकाष्ठा यह है कि विश्वविद्यालय परिसरों में होली समेत हिंदू त्योहार मनाने पर पाबंदी लगाई गई।
हालांकि चौतरफा निंदा होने पर इस फैसले से कदम पीछे लेने पड़े। अगर बराक ओबामा उपदेश देना ही चाहते हैं तो पाकिस्तान को दें, जहां कदम-कदम पर अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव होता है। भारत में हम सब भारतीय हैं और सभी समुदायों के हितों की रक्षा के लिए मजबूती से खड़े हैं।