हाल में पाकिस्तान में आतंकवादी हमलों को लेकर हालात थोड़े सुधरे थे। बड़े बम धमाकों का सिलसिला थम-सा गया था, लेकिन खैबर पख्तूनख्वा में जेयूआई-एफ के सम्मेलन में धमाके के बाद ऐसी आशंका है कि अब वहां आतंकवाद की नई लहर आने वाली है। उक्त सम्मेलन में धमाके के कारण अब तक 54 लोग जान गंवा चुके हैं और 100 से ज्यादा घायल अस्पताल में भर्ती हैं।
वैसे जेयूआई-एफ भी एक कट्टर जमात है। वह जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का खुलकर समर्थन करती रही है। अतीत में भारतीय सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों में जो आतंकवादी मारे गए, उन्हें जेयूआई-एफ ने 'हीरो' की तरह पेश किया था। अब उसी के 'राजनीतिक सम्मेलन' में आतंकवादी हमला हो गया! जिस आत्मघाती हमलावर ने बम धमाका किया, उसके आतंकवादी संगठन आईएसआईएस से संबंध बताए जा रहे हैं।
वास्तव में आज पाकिस्तान आतंकवाद के ऐसे दलदल में फंस चुका है, जिससे बाहर निकलने का रास्ता आसान नहीं है। वह उसके हुक्मरानों को दिखाई भी नहीं दे रहा है। पाक ने जिन आतंकवादियों का पालन-पोषण किया था, उनके पीछे उसकी मंशा यह थी कि ये फौज व सरकार के आज्ञाकारी रहेंगे और भारत को परेशान करेंगे। शुरुआती दौर में ऐसा हुआ भी, लेकिन कालांतर में उनकी जड़ें इतनी गहरी हो गईं कि वे सत्ता में आने का ख़्वाब देखने लगे। वहां एक ही आतंकवादी संगठन की कई शाखाएं काम कर रही हैं।
ऐसा भी होता है कि उनमें से कोई एक गुट फौज का समर्थक होता है, तो एक गुट उसका विरोधी होता है। प्राय: फौज अपने विरोधियों के खात्मे के लिए आतंकवादी संगठनों का सहारा लेती है। ऐसे कई प्रभावशाली लोग रहे हैं (जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का नाम भी शामिल है), जिन्हें फौज ने आतंकवादी संगठनों के जरिए मौत के घाट उतार दिया था।
चर्चा तो यह भी है कि जेयूआई-एफ के सम्मेलन में इतना बड़ा धमाका फौज या आईएसआई की सहमति के बिना संभव नहीं है। चूंकि यह पाकिस्तान के लिए चुनावी साल भी है। पिछले चुनाव में फौज जोर-शोर से इमरान ख़ान को सत्ता में लाई, लेकिन उन्हें बीच में ही विदाई दे दी थी। उसके बाद से इमरान और फौज के बीच छत्तीस का आंकड़ा है।
माना जा रहा है कि वर्तमान में इमरान की लोकप्रियता सबसे ज्यादा है। अगर चुनाव में ज्यादा धांधली नहीं हुई तो वे दोबारा प्रधानमंत्री बन सकते हैं। फौज किसी भी सूरत में यह नहीं चाहती। वह हर कीमत पर उन्हें सत्ता में आने से रोकना चाहती है। भले ही पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को वापस कुर्सी पर बैठाना पड़े। इसके लिए चुनावों में बाधा डालने के वास्ते अभी से माहौल बनाना शुरू कर दिया है।
जेयूआई-एफ के सम्मेलन में हमला होने के बाद फौज यह दलील दे सकती है कि चुनाव कराना खतरे से खाली नहीं है। चूंकि इस दौरान नेताओं की बड़ी रैलियां होंगी। लोग मतदान के लिए कतारों में लगेंगे। लिहाजा बड़े धमाकों का खतरा हो सकता है! पाक में चुनावी मौसम में ऐसे धमाके पहले हो चुके हैं, जिनमें एक ही बार में 100 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। आखिर में उनके तार 'रावलपिंडी' से जुड़ते पाए गए।
ऐसे हमलों के बहाने पाक फौज मनमानी करती है और जिसे रोकना चाहती है, उसे हमले का भय दिखाती है। बेनज़ीर भुट्टो को भी तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने इसी तरह भयभीत करने की कोशिश की थी। जब अक्टूबर 2007 में बेनज़ीर पाकिस्तान लौटीं और इस बात की प्रबल संभावना थी कि वे अपनी लोकप्रियता के दम पर चुनाव जीत जाएंगी, तो उनके काफिले पर बम हमला हुआ था। उसमें लगभग 150 लोगों की मौत हुई और 400 लोग घायल हुए थे।
मुशर्रफ चाहते थे कि बेनजीर को किसी तरह चुनावों से दूर रखा जाए। आखिरकार एक और आतंकी हमले में उनकी जान चली गई। आशंका है कि फौज अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए पाक को एक बार फिर उसी दौर में लेकर जा सकती है। चाहे उसे किसी आतंकवादी गुट का इस्तेमाल और किसी लोकप्रिय राजनेता को निशाना बनाना पड़े!