कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को मोदी उपनाम को लेकर की गई टिप्पणी के संबंध में वर्ष 2019 में उनके खिलाफ दर्ज आपराधिक मानहानि मामले में उच्चतम न्यायालय से राहत मिल ही गई। न्यायालय ने उनकी सजा पर रोक लगाते हुए लोकसभा सदस्यता बहाल करने का रास्ता साफ कर दिया है। कांग्रेस नेता इस पर खुशी मना रहे हैं। इसे सत्य और न्याय की मजबूत पुष्टि बता रहे हैं।
पार्टी के वरिष्ठ नेता को देश की सबसे बड़ी अदालत से राहत मिलने पर खुशी होना स्वाभाविक है, लेकिन इसके साथ ही न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने जो कहा, उस पर ध्यान देना जरूरी है। इस पर न केवल राहुल गांधी, बल्कि हर राजनेता को चिंतन करना चाहिए।
पीठ ने कहा कि 'इसमें कोई संदेह नहीं है कि टिप्पणी उचित नहीं थी और सार्वजनिक जीवन में भाषण देते समय एक व्यक्ति से सावधानी बरतने की उम्मीद की जाती है।' स्पष्ट है कि न्यायालय ने राहुल की टिप्पणी 'सभी ... का एक ही उपनाम ... कैसे हो सकता है', को उचित नहीं माना है। साथ ही भाषण देते समय 'सावधानी' बरतने की हिदायत दी है।
अभी लोकसभा चुनाव होने में एक साल से भी कम समय बचा है। इसके अलावा कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। राजनेताओं को चाहिए कि वे न्यायालय के इन शब्दों को हृदयंगम कर लें और आगामी चुनावों में किसी भी प्रकार की विवादित, भड़काऊ और अपमानजनक टिप्पणी से तौबा कर लें।
प्राय: चुनावी माहौल में भीड़ से ज्यादा वाहवाही और तालियां पाने के लिए नेतागण ऐसी टिप्पणियां करते हैं। कुछ नेता तो जाने ही इसके लिए जाते हैं कि वे जिस जनसभा को संबोधित करेंगे, वहां ऐसी टिप्पणी जरूर करेंगे। वह टिप्पणी सोशल मीडिया पर वायरल होती है। फिर टीवी चैनलों पर बहस शुरू हो जाती है। कार्यकर्ताओं को लगता है कि 'बड़ा नेता' बनने के लिए यह 'शॉर्टकट' ठीक है। कुल मिलाकर मुफ्त का प्रचार। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाए!
उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी को राहत भले ही दे दी, लेकिन निचली अदालत से लेकर उच्च न्यायालय तक मामला उनके खिलाफ जा रहा था। ऐसे में कांग्रेस नेता इस बात को लेकर उलझन में थे कि अगर उच्चतम न्यायालय में भी राहुल की याचिका खारिज हो गई तो आगे क्या होगा? राहुल संसद सदस्यता तो पहले ही गंवा चुके थे। जेल जाने की नौबत आ सकती थी!
अप्रैल 2019 के इस मामले में राहुल को अदालतों के चक्कर लगाने पड़े थे। अगर वे एक समुदाय विशेष के लिए ऐसी टिप्पणी ही नहीं करते तो बेहतर होता। सरकार की आलोचना करने के हजारों तरीके हो सकते हैं। क्या इसके लिए जरूरी था कि कुछ अपराधियों के कृत्यों का एक उपनाम से संबंध जोड़कर बोला जाए? लोकतंत्र में इस प्रकार की टिप्पणियों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी ... जैसे नेता एक-एक शब्द का चयन बहुत सावधानी से करते थे। उनके भाषणों में गंभीरता होती थी। आज राजनेताओं के शब्दों में वह गंभीरता कम ही नजर आती है। प्राय: आरोप-प्रत्यारोप के खेल में ज्यादा प्राथमिकता इस बात को दी जाती है कि कौन कितने कठोर शब्द बोलकर सामने वाले को लज्जित कर सकता है! तर्क गायब हैं, ज्यादा से ज्यादा प्रचार पाने की इच्छा हावी है।
उक्त फैसले के बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने भगवान बुद्ध को उद्धृत करते हुए कहा, ‘तीन चीजों को लंबे समय तक छिपाया नहीं जा सकता: सूर्य, चंद्रमा और सत्य।’ बात तो सही है, लेकिन भगवान बुद्ध ने वाणी के संयम की भी शिक्षा दी थी। उसे किसी को नहीं भूलना चाहिए। संयम और तपस्या से वाणी में जो ओज आता है, उसी से महान कार्य सिद्ध होते हैं। भावावेश में आकर की गईं टिप्पणियों से जो लाभ मिलता है, वह क्षणिक ही होता है।