प्राय: यह माना जाता है कि सरकारी स्तर पर जो नारे दिए जाते हैं, उनका धरातल पर असर दिखने में काफी समय लगता है। ऐसा भी होता है कि सरकार ने किसी बड़े उद्देश्य के लिए कोई पहल की, लेकिन वह निर्धारित अवधि में भी खास बदलाव नहीं ला पाई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ का आह्वान किया था तो ऐसी चर्चा थी कि ये बातें भी नारों की हद तक सीमित रह जाएंगी, क्योंकि बाजार में चीनी माल का काफी दबदबा है। हालांकि यह प्रसन्नता का विषय है कि ये अपीलें अब अपना असर दिखाने लगी हैं।
पहले जहां रक्षाबंधन के अवसर पर बाजार में चीनी राखियां छाई रहती थीं, अब भारत में निर्मित राखियों का जलवा है। इससे दुकानदार और ग्राहक, दोनों खुश हैं। जब हर भाई की कलाई पर देश में बनी राखी सुशोभित होगी तो इससे हमारी अर्थव्यवस्था को भी लाभ होगा। मुद्रा का प्रवाह उन भारतीय परिवारों तक होगा, जो राखियां बनाने और बेचने के कार्य में संलग्न हैं। उन्हें रोजगार मिलेगा।
जब चीन से राखियां आती हैं तो विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा ड्रैगन के खजाने में जाता है। यह सर्वविदित है कि चीन उस धन का इस्तेमाल भारत-विरोधी कृत्यों को हवा देने के लिए भी करता है। उसके खजाने से पाकिस्तान को सहायता भेजी जाती है, जिसके आतंकवादी हमारे सैनिकों पर गोलीबारी करते हैं।
ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत से निकलकर चीन के पास जाने वाला रुपया हमारी ओर खंजर बनकर लौटता है। चीनी माल के प्रति भारतवासियों में यह जागरूकता कैसे आई? निस्संदेह इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को जाता है, जिन्होंने विभिन्न अवसरों पर स्वदेशी की अवधारणा को बल दिया। इसके अलावा सोशल मीडिया ने इसमें बड़ा किरदार निभाया है।
आज किसी भी त्योहार से पखवाड़े भर पहले सोशल मीडिया समूहों में ऐसे संदेश आने शुरू हो जाते हैं, जिनमें चीनी माल से दूर रहने और स्वदेशी को अपनाने की अपील की जाती है। प्राय: होली पर चीनी पिचकारी, दीपावली पर चीनी झालर, चीनी उपकरण, रक्षाबंधन पर चीनी राखियों ... के स्थान पर भारतीय चीजें खरीदने की इन अपीलों का यह कहते हुए मजाक भी उड़ाया जाता है कि बहिष्कार करके क्या हासिल हो जाएगा, क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था तो बहुत बड़ी है!
यह 'तर्क' देने वाले भूल जाते हैं कि महात्मा गांधी ने विदेशी माल का बहिष्कार कर उस अंग्रेजी साम्राज्य को हिला दिया था, जिसके बारे में मशहूर था कि उनके राज में सूरज नहीं डूबता। जब स्वदेशी को बढ़ावा देने वाले ये संदेश आम लोगों तक पहुंचते हैं तो इनका गहरा असर होता है। खासतौर से गलवान भिड़ंत के बाद लोगों में यह धारणा मजबूत हो गई है कि जहां तक संभव हो, अपनी जेब से चीन के खजाने में एक रुपया तक न डालें।
निस्संदेह आज भी लोग चीनी माल खरीदते हैं, लेकिन अब स्वदेशी को बढ़ावा देने की भावना बलवती हो रही है। लोग अपनी जड़ों से जुड़ रहे हैं। अब दीपावली पर मिट्टी के दीपक खरीदने की अपील की जाती है। कई लोग तो ज्यादा संख्या में दीपक खरीदकर आसपास बांटते हैं। चीनी माल के बारे में कहा जाता है कि यह तुलनात्मक रूप से सस्ता होता है, इसलिए लोग उसे खरीदना चाहते हैं। लिहाजा दुकानदार भी वही माल रखता है, जिसकी मांग ज्यादा हो। अगर ग्राहक ही यह मांग करने लगें कि उन्हें चीनी माल के बजाय भारतीय माल खरीदना है तो दुकानदार उसी के अनुरूप सामान रखेगा।
अभी यह बदलाव भले ही छोटा लगे, लेकिन समय के साथ इसका असर और गहरा होता जाएगा। हमें चीन पर निर्भरता को कम से कम करते हुए आत्मनिर्भर बनना है। यह तभी संभव है, जब स्वदेशी वस्तुओं का अधिक उत्पादन हो, उनकी गुणवत्ता सुधरे और विश्व के बाजारों में उनका दबदबा बढ़े। चीन की चुनौती का सामना करने की जिम्मेदारी सिर्फ सैनिकों की नहीं है। हर भारतीय को इसका सामना करना होगा और राष्ट्रीय हित के साथ दृढ़ता से खड़े रहना होगा।