संसद का विशेष सत्र बुलाने की घोषणा के साथ ही 'एक देश, एक चुनाव' का मुद्दा फिर चर्चा में आ गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि सरकार ने इसकी संभावनाएं तलाशने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर दिया है।
विशेष सत्र बुलाने की जिस तरह अचानक घोषणा की गई, उससे जनता कयास लगा रही है, वहीं विपक्ष 'उलझन' में नजर आ रहा है। उसकी ओर से 'एक देश, एक चुनाव' के विरोध में बयान आने शुरू हो गए हैं। सोशल मीडिया पर यह मुद्दा सुर्खियां बटोर रहा है।
'एक देश, एक चुनाव' कोई नया मुद्दा नहीं है। इस पर पहले भी चर्चा हो चुकी है, जिसके पक्ष और विपक्ष में अलग-अलग तर्क हैं, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह चुनाव सुधार का हिस्सा है। लिहाजा इस पर गंभीरता से चर्चा जरूर होनी चाहिए। देश में पहले आम चुनाव से लेकर आज तक संसद, विधानमंडल, स्थानीय शासन के अनेक चुनाव हो चुके हैं। इस दौरान देश ने चुनाव सुधारों की राह अपनाई है। एक स्वस्थ और सशक्त लोकतंत्र के लिए यह बहुत जरूरी है।
हमें उन तौर-तरीकों को चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहिए, जो आज अत्यधिक प्रासंगिक हैं। पहले मतपत्र से मतदान होता था। अगर ठप्पा जरा-सा भी इधर-उधर लगा तो वह मत निरस्त हो जाता था। कुछ संवेदनशील स्थानों पर मतपेटियां लूट ली जाती थीं। बाहुबली किस्म के नेता बूथ पर कब्जा कर लेते थे। जब मतगणना होती तो बहुत ज्यादा समय लगता था।
आज ईवीएम का बटन दबाकर मतदान होता है। मतदान बूथ की वीडियोग्राफी होती है, जिससे अपराधी व बाहुबली तत्त्वों की मनमानी पर लगाम लगी है। मतगणना बहुत आसान हो गई है। मात्र कुछ घंटों में आंकड़े सामने आ जाते हैं। अगर ये चुनाव सुधार न होते तो आज देश का लोकतंत्र कैसा होता?
आश्चर्य होता है, आज भी कुछ नेतागण वर्षों पुरानी उसी चुनाव प्रक्रिया को वापस लाने की पैरवी करते मिल जाते हैं! इस सदी की कई चुनावी जरूरतें पिछली सदी की जरूरतों से अलग हैं, लिहाजा ऐसे सुधारों को धरातल पर उतारा जाना चाहिए, जो लोकतंत्र को मजबूत बनाने में सहायक हों।
'एक देश, एक चुनाव' को लेकर न तो जल्दबाजी करनी चाहिए और न ही इसका अंधविरोध करना चाहिए। इससे जुड़े हर बिंदु का उल्लेख करते हुए उस पर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। 'एक देश, एक चुनाव' से जुड़े फायदों के संबंध में यह तर्क दिया जा सकता है कि इससे समय और संसाधनों की बचत होगी।
अभी स्थिति यह है कि हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव आ जाते हैं। वहां आचार संहिता लगने से विकास कार्यों की गति अवरुद्ध होती है। वह चुनाव संपन्न होने के बाद पूरी मशीनरी एक और चुनाव में व्यस्त हो जाती है। जब देश की ऊर्जा का बड़ा हिस्सा इस तरह चुनावों पर खर्च हो जाएगा तो विकास कब होगा?
'एक देश, एक चुनाव' की राह बिल्कुल भी आसान नहीं है। इसके लिए सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती विपक्ष को राजी करना है। पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में समिति गठित किए जाने के कुछ घंटे बाद ही शिवसेना (यूबीटी) के नेता संजय राउत ने इस कदम को देश में ‘चुनाव स्थगित करने की साजिश’ करार दे दिया! उन्होंने यह भी कह दिया कि 'हमें निष्पक्ष चुनाव की जरूरत है, जो आजकल नहीं हो रहे हैं।' प्राय: नेतागण को उसी समय चुनावों की निष्पक्षता पर संदेह होता है, जब उनकी सरकार चली जाती है।
'एक देश, एक चुनाव' की राह में दूसरी बड़ी समस्या विभिन्न राज्यों में अलग-अलग समय पर सरकार का कार्यकाल पूरा होने को लेकर है। क्या वे एकसाथ चुनाव के लिए तैयार होंगे? प. बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, केरल ... जहां गैर-राजग सरकारें हैं, क्या ये राज्य 'एक देश, एक चुनाव' पर सहमत होंगे? पूर्व निर्वाचन आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति मानते हैं कि एकसाथ चुनाव कराने पर राजनीतिक सहमति बनाना चुनौतीपूर्ण होगा।
हालांकि वे यह भी कहते हैं कि 'एकसाथ चुनाव कराना निश्चित रूप से संभव है, क्योंकि किसी एक साल होने वाले सभी राज्यों के चुनावों को एकसाथ कराया जा सकता है। इससे कम से कम एक साल में कई चुनाव कराने का तनाव कम हो जाएगा। यह एकसाथ चुनाव कराने के लिए पहला कदम हो सकता है।'
अगर देश अमृत काल में सुधारों की ओर कदम बढ़ाते हुए यह चुनाव सुधार करने में सफल हुआ तो इसके फल लोकतंत्र को और सशक्त बनाएंगे।