सनातन की ध्वजा

लोगों की आस्थाओं का सम्मान करना चाहिए, लेकिन इस मामले में सबके साथ समानता का व्यवहार भी सुनिश्चित होना चाहिए

वाह रे वोटबैंक, तुम्हारे लिए कुछ नेताओं को क्या-क्या नहीं करना पड़ता! 

ऐसा प्रतीत होता है कि इन दिनों कुछ लोगों ने सनातन धर्म और संस्कृति का अपमान करने में एक-दूसरे को पछाड़ देने की कसम खा रखी है। वे बेखौफ होकर देशवासियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं। वहीं, इस पर आपत्ति जताने के बजाय उनके सुर में सुर मिलाने वाले भी खड़े हो रहे हैं। यह देश में क्या हो रहा है? 

आज खुद को सुधारक, आधुनिक और लिबरल दिखाने और क्षणिक प्रसिद्धि पाने के लिए कुछ लोग सनातन धर्म और संस्कृति का अपमान करने को एक शॉर्टकट के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। जब कोई इसका विरोध करता है तो 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' को लेकर चिंता जताने वाले सक्रिय हो जाते हैं। यह दलील दी जाती है कि देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है, लोकतंत्र खतरे में आ गया है! 

निस्संदेह लोगों की आस्थाओं का सम्मान करना चाहिए, लेकिन इस मामले में सबके साथ समानता का व्यवहार भी सुनिश्चित होना चाहिए। यह नहीं हो सकता कि खुद को प्रगतिशील और आधुनिक दिखाने के लिए सनातन धर्म के लिए अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करें। यह स्वीकार्य नहीं है। लेकिन वाह रे वोटबैंक, तुम्हारे लिए कुछ नेताओं को क्या-क्या नहीं करना पड़ता! 

आज यह आसान-सा फॉर्मूला बन गया है कि सनातन धर्म के लिए कुछ हल्के शब्द बोल दें और चर्चा में आ जाएं। जब कॉमेडियन और फिल्म अभिनेता माता सीता और प्रभु श्रीराम का मजाक उड़ा सकते हैं तो 'कुछ' नेता पीछे क्यों रहें? उनके शब्दों पर ठहाके लगते हैं, तालियां बजती हैं। यह कितनी लज्जा की बात है कि उन्हें स्वयं को बुद्धिमान, विद्वान और सुधारक सिद्ध करने के लिए अपने ही देश की संस्कृति और करोड़ों लोगों की आस्था का मजाक बनाना पड़ रहा है! क्या वे इतने विचारशून्य हैं?

यह स्पष्ट रूप से सनातन धर्म से दूरी, अपनी संस्कृति के प्रति हीनभावना और चिंतन, मनन व अध्ययन के घोर अभाव का परिणाम है। सनातन नाम है तपस्या का, सनातन नाम है सबके कल्याण का, सनातन नाम है उस दर्शन का, जो कण-कण में ईश्वरत्व की अनुभूति कराता है और यह उद्घोष करता है कि संपूर्ण विश्व एक परिवार है।

यह भी एक संयोग है कि वर्ष 1893 में इसी सितंबर महीने की 11 तारीख को स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक भाषण देकर सनातन धर्म और संस्कृति की पताका फहराई थी। 

युवाओं को उनका वह भाषण जरूर पढ़ना चाहिए, जिसमें उन्होंने बड़े ही सुंदर ढंग से बताया था कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकलीं नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अलग-अलग रास्ते चुनता है, जो दिखने में भले ही अलग लगते हैं, लेकिन सब उसी ईश्वर तक जाते हैं। इतनी उदारता, इतना समन्वय और कहां है? 

हमारे ऋषियों और संतों ने कभी नहीं कहा कि एकमात्र हम सच्चे हैं और जो कोई हमारे मत से भिन्नता रखेगा, वह असत्य के मार्ग पर होगा। बल्कि सनातन धर्म ने शास्त्रार्थ की परंपरा को प्रोत्साहित किया। उसमें विद्वान खुलकर अपने विचार व्यक्त करते थे। वे ईश्वर और उसकी सृष्टि के प्रयोजन तक पर सवाल उठा सकते थे। उन्हें पूरी आज़ादी थी। इसीलिए भारत में दर्शन की इतनी शाखाएं विकसित हुईं। 

स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि 'रोम का ध्येय था साम्राज्य-लिप्सा, शक्ति-विस्तार। ... उस पर आघात हुआ नहीं कि रोम छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा थी बुद्धि। ... उस पर आघात हुआ नहीं कि यूनान की इतिश्री हो गई। ... स्पेन इत्यादि देशों का भी यही हाल हुआ है। हर राष्ट्र का विश्व के लिए एक ध्येय होता है और जब तक वह ध्येय आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित होता है, चाहे जो संकट क्यों न आए। भारत की वह सजीवता अभी तक आक्रांत नहीं हुई है। उसने उसका त्याग नहीं किया है। ... भारत कभी दूसरों को पराजित करने वाला राष्ट्र नहीं बनेगा, कभी नहीं। ... पर आखिर भारत का स्वर होगा क्या? वह स्वर होगा ईश्वर, केवल ईश्वर का।' 

यही है भारत का स्वर, जिसे अवरुद्ध करने और मिटाने की चाह में कई आक्रांता आए और गए। अब तो उनके नाम तक लोगों को याद नहीं हैं, लेकिन सनातन की गगनचुंबी ध्वजा आज भी लहरा रही है और सदैव लहराती रहेगी।

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