'समलैंगिक विवाह': कई सवाल बरकरार

'समलैंगिक विवाह' को लेकर हाल के वर्षों में राष्ट्रीय मीडिया में ख़बरों का प्रतिशत बढ़ा है

डेढ़-दो दशक पहले तो आम जनता में शायद ही किसी ने इस पर चर्चा की होगी

'समलैंगिक विवाह' को कानूनी मान्यता दिए जाने का अनुरोध करने वाली याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाकर स्पष्ट कर दिया कि इस पर कानून बनाना संसद का काम है। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पीठ में न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट्ट, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति हिमा कोहली के फैसले के बाद अब गेंद केंद्र के पाले में है। 

'समलैंगिक विवाह' को लेकर हाल के वर्षों में राष्ट्रीय मीडिया में ख़बरों का प्रतिशत बढ़ा है। डेढ़-दो दशक पहले तो आम जनता में शायद ही किसी ने इस पर चर्चा की होगी। लोगों के लिए यह विश्वास करना मुश्किल था कि ऐसा भी हो सकता है! भारतीय समाज जिन परंपराओं, मूल्यों और विश्वासों को लेकर चलता है, उसमें 'समलैंगिक विवाहों' को स्वीकृति मिलना बहुत मुश्किल है। सवाल तो यह भी है कि ऐसे विवाहों का भविष्य क्या होगा? 

परस्पर प्रेम, संतानोत्पत्ति, पारिवारिक व सामाजिक जीवन में भागीदारी समेत ऐसे कई पहलू हैं, जिनको लेकर 'समलैंगिक विवाहों' की भूमिका के बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। हां, पश्चिमी देशों में ऐसे विवाहों की बाढ़-सी आई हुई है, लेकिन यह भी ध्यान रखें कि वहां 'परिवार' टूट रहे हैं। बल्कि ऐसा कहना उचित होगा कि परिवार व्यवस्था ही नष्ट हो रही है। तलाक बढ़ते जा रहे हैं। वहां 'समलैंगिक विवाहों' को आश्चर्य की दृष्टि से नहीं देखा जाता। 

ऐसे जोड़ों को जब संतानोत्पत्ति की इच्छा होती है तो आधुनिक विज्ञान ने इसके लिए भी नई संभावनाएं खोल दी हैं। अमेरिका का एक चर्चित स्पर्म डोनर कहता है कि 'उसने अपने जीवन में सबसे पहले एक समलैंगिक जोड़े की 'मदद' की थी। उसमें एक महिला संतान चाहती थी।' जहां-जहां इस प्रकार के विवाहों को मान्यता मिलेगी, कालांतर में संतानोत्पत्ति के नए विकल्प सामने आते जाएंगे, लेकिन क्या ये जोड़े उन बच्चों को 'पूरा प्रेम' दे पाएंगे? स्वस्थ बचपन के लिए माता-पिता के प्रेम के साथ अन्य रिश्तों की भी जरूरत होती है। क्या 'समलैंगिक विवाह' में ऐसा संभव है?

भारत में 19वीं सदी में जन्मे एक महान दार्शनिक व सुधारक ने तत्कालीन समाज में व्याप्त बाल विवाह की समस्या के समाधान के लिए लिखा था कि (शिक्षा, अध्यात्म व जागरूकता द्वारा) लड़कों के (बाल) विवाह बंद करवा दें, इससे लड़कियों के बाल विवाह बंद हो जाएंगे। चूंकि उस समय स्कूल-कॉलेज की शिक्षा का अधिक चलन नहीं था। लड़कों के लिए 'अक्षरज्ञान' पर्याप्त होता था। सामान्य परिवारों की लड़कियों के लिए तो स्कूल मिलना बहुत मुश्किल था। 

आज बाल विवाह जैसी प्रथाओं पर कड़ा नियंत्रण पा लिया गया है, लेकिन समाज पर पाश्चात्य प्रभाव बढ़ता जा रहा है। पश्चिम की यह देखादेखी भविष्य में हमारे परिवारों के लिए कहीं घातक सिद्ध न हो जाए। प्रधान न्यायाधीश द्वारा केंद्र, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया जाना कि समलैंगिक समुदाय के साथ भेदभाव नहीं किया जाए, मानवाधिकारों से जुड़ा मुद्दा भी है। 

निस्संदेह ये लोग इसी समाज का हिस्सा हैं। लिहाजा इनके अधिकारों की रक्षा की जाए। ये गरिमापूर्ण ढंग से जीवन जी सकें, इसके लिए व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। प्रधान न्यायाधीश ने उचित ही कहा कि 'समलैंगिकता प्राकृतिक होती है, जो सदियों से जानी जाती है और इसका केवल शहरी या अभिजात्य वर्ग से संबंध नहीं है। ... वे (केंद्र, राज्य और केंद्रशासित प्रदेश) समलैंगिक अधिकारों के बारे में आम लोगों को जागरूक करने के लिए कदम उठाएं और यह सुनिश्चित करें कि लिंग-परिवर्तन ऑपरेशन की अनुमति उस आयु तक न दी जाए, जब तक इसके इच्छुक लोग इसके परिणाम को पूरी तरह समझने में सक्षम नहीं हों।' 

न्यायालय द्वारा सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का यह बयान दर्ज किया जाना कि केंद्र समलैंगिक लोगों के अधिकारों के संबंध में फैसला करने के लिए समिति गठित करेगा, समानता की दिशा में एक कदम है। भविष्य में सरकारें जो भी फैसले लें, भारतीय संस्कृति, समाज, उसकी परंपराओं, मूल्यों और विश्वासों को ध्यान में रखकर ही लें।

About The Author: News Desk