दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जो वादे कर राजनीति में आए थे, ऐसा प्रतीत होता है कि अब वे उनसे दूरी बनाते जा रहे हैं। 'ईमानदारी' के बूते व्यवस्था में बदलाव लाने की बात करने वाले केजरीवाल (अब खत्म हो चुकी) दिल्ली आबकारी नीति से संबंधित एक मामले में पूछताछ के लिए गुरुवार को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के समक्ष पेश नहीं हुए! इसके उलट, उन्होंने केंद्रीय जांच एजेंसी को पत्र लिखकर उन्हें भेजे गए समन को ‘वापस लेने’ की मांग कर दी और यह भी कहा कि नोटिस ‘अस्पष्ट, (राजनीति से) प्रेरित और कानून के मुताबिक विचारणीय नहीं’ है।
क्या केजरीवाल भूल गए कि एक दशक पहले वे कहा करते थे कि 'सांच को आंच नहीं'। तब वे हर दल को कठघरे में खड़ा करते थे और ईमानदारी का सबूत मांगते थे! यही नहीं, केजरीवाल ने राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने का संकल्प लिया था। एक दशक बाद के केजरीवाल बदले-बदले से नजर आते हैं। अब वे भ्रष्टाचार के खात्मे की बातें उतने जोश से नहीं करते। जिस कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए वे दिल्ली की सत्ता में आए, आज उसी के नेतृत्व वाले 'इंडि' गठबंधन में मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं! शायद अब उनका उद्देश्य आम आदमी पार्टी (आप) का विस्तार करना रह गया है! अगर इसके लिए सिद्धांतों को ताक पर रखना पड़े तो उससे भी गुरेज़ नहीं करेंगे! चाहे ईडी के समक्ष पेश न होकर मध्य प्रदेश के सिंगरौली शहर में पार्टी उम्मीदवार के लिए रोड शो ही क्यों न करना पड़े।
बेहतर होता कि केजरीवाल रोड शो के बजाय ईडी के समक्ष पेश होने को प्राथमिकता देते। बल्कि जिस तरह उनकी पार्टी की ओर से ईमानदारी के दावे किए जाते हैं, उसे ध्यान में रखते हुए उन्हें किसी समन का इंतजार ही नहीं करना चाहिए था, स्वयं उपस्थित होने की पेशकश करते और मामले से संबंधित पूरी जानकारी जांच अधिकारियों को उपलब्ध करा देते। अब तक दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता।
केजरीवाल के पास 'आप' को सबसे ईमानदार पार्टी साबित करने का बेहतरीन मौका था, जो उन्होंने रोड शो के नाम पर गंवा दिया। वे सवाल करते हैं- 'समन में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि मुझे एक व्यक्ति के तौर पर बुलाया गया है या दिल्ली के मुख्यमंत्री के आधिकारिक पद पर बैठे व्यक्ति के तौर पर अथवा 'आप' के राष्ट्रीय संयोजक के तौर पर?' प्राय: ऐसे सवाल नेतागण तभी करते हैं, जब मामले को लंबा खींचना हो। अगर केजरीवाल यही जानना चाहते थे कि उन्हें किस हैसियत से बुलाया गया है, तो इसका जवाब उन्हें ईडी दफ्तर में मिल जाता। वहां जाने के बजाय सार्वजनिक रूप से सवाल दागने से यह संदेश जाता है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ईमानदारी और पारदर्शिता के उन दावों से दूर होते जा रहे हैं, जो वे अतीत में जोर-शोर से किया करते थे।
बेशक ऐसे सवाल करना भी केजरीवाल का अधिकार है, लेकिन अगर वे इस समय 'वही पुराने आरोप' लगाने लग जाएंगे, जो प्राय: अन्य पार्टियां लगाती हैं / रही हैं, तो ईमानदारी की राजनीति का क्या हुआ? कहां गई पारदर्शिता? बल्कि केजरीवाल को तो ऐसे समन और हर तरह की जांच का खुले दिल से स्वागत करना चाहिए, चूंकि उनकी सरकार की ओर से कहीं कोई 'गड़बड़' नहीं हुई है। जब सबकुछ 'सही और साफ' है तो कैसी झिझक? उन्हें तो दुनिया की हर तेज-तर्रार एजेंसी की जांच के लिए दरवाजे खोल देने चाहिएं। इससे न केवल उनकी ईमानदारी पर लोगों का भरोसा और मजबूत होगा, बल्कि यह कदम उन्हें 'बड़े से बड़े' रोड शो से ज्यादा फायदा देगा।
कहा गया है कि चूंकि केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ 'आप' के राष्ट्रीय संयोजक भी हैं। उनका मिजोरम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान एवं तेलंगाना में पार्टी के ‘स्टार प्रचारक’ के तौर पर यात्रा करना जरूरी है, जहां इस महीने विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
सवाल है- 'आम' लोगों की पार्टी में 'स्टार' संस्कृति का क्या काम? यह चलन तो अन्य पार्टियों में है, जिन पर केजरीवाल आरोप लगाते रहे हैं कि वे खास लोगों की पार्टियां हैं, लिहाजा आम लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है! दिल्ली के मुख्यमंत्री कहते हैं कि 'मैं उन्हें कहना चाहता हूं- केजरीवाल के शरीर को तो गिरफ्तार कर लेंगे, लेकिन केजरीवाल की सोच को कैसे गिरफ्तार करेंगे?' अगर केजरीवाल को जांच एजेंसियों पर भरोसा नहीं है तो वे कम से कम न्यायालय पर तो भरोसा करें। वे सत्य के रास्ते पर हैं तो पूछताछ के लिए सहर्ष उपस्थित हों। ईडी की जांच में कहीं कोई खामी रह गई तो वह न्यायालय में जरूर पकड़ी जाएगी और वहां 'पूरा-पूरा' न्याय होगा।