अनूठी सज़ा

वास्तव में यह सज़ा नहीं, बल्कि 'सेवा के माध्यम से सुधार' का तरीका है

सालों-साल टाल-मटोल करने वाले ऐसे अधिकारी जब दिव्यांग बच्चों की सेवा करेंगे तो शायद उन्हें उनकी पीड़ा का कुछ बोध हो जाए!

दिव्यांगजन संबंधी मामलों के विभाग ने सेवा पुस्तिका में एक कर्मचारी का नाम सामान्य के बजाय दिव्यांग की श्रेणी में शामिल करने में चार साल की देरी के लिए जिम्मेदार पाए गए अधिकारियों को जो 'अनूठी' सज़ा दी है, उस पर अन्य विभागों को भी गौर करना चाहिए। उक्त विभाग ने जिम्मेदार अधिकारियों को पांच दिनों तक दिव्यांग छात्रों की सेवा करने का आदेश दिया है। वास्तव में यह सज़ा नहीं, बल्कि 'सेवा के माध्यम से सुधार' का तरीका है। दिव्यांगजन संबंधी विभाग के मुख्य आयुक्त राजेश अग्रवाल ने शिकायतकर्ता कर्मचारी की श्रेणी को सामान्य से दिव्यांग में बदलने में सरकार के स्वामित्व वाली महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) की ओर से इस देरी पर कड़ी नाराजगी भी जताई, जो कि स्वाभाविक है। अगर किसी कार्य में एक-दो हफ्तों की देरी हो जाए तो उसके पीछे जो कारण गिनाए जाते हैं, उन पर कुछ विश्वास किया जा सकता है, लेकिन सिर्फ श्रेणी बदलने में चार साल लग गए! यह कैसी लापरवाही है? इसके पीछे न तो व्यस्तता का बहाना बनाया जा सकता है, न समय के अभाव का हवाला दिया जा सकता है। सालों-साल टाल-मटोल करने वाले ऐसे अधिकारी जब दिव्यांग बच्चों की सेवा करेंगे तो शायद उन्हें उनकी पीड़ा का कुछ बोध हो जाए। मुख्य आयुक्त ने एमटीएनएल को कार्य में इस देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की पहचान करने और उन्हें ‘अमर ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट’ भेजने का निर्देश दे दिया है। अब जरूरत इस बात की है कि आदेश पर तुरंत अमल हो। कहीं ऐसा न हो कि इसमें भी कई साल लग जाएं।

महात्मा गांधी अपने आश्रम में ख़ुद झाड़ू लगाते थे। उन्होंने कई स्थानों पर सेवा और स्वच्छता का कार्य किया था। उनके साथ ऐसे लोग भी झाड़ू लगाते दिखाई देते थे, जिनके महलों-बंगलों में हर काम के लिए सहायक मौजूद थे। गांधीजी उनसे सेवाकार्य क्यों करवाते थे? इसलिए, क्योंकि सेवा करने से इन्सान का गुरूर घटता है, अहंकार मिटता है। हमें बापू के अनुभवों से लाभ लेना चाहिए। चूंकि अब लोकसभा चुनाव भी ज्यादा दूर नहीं हैं। प्राय: चुनावी मौसम में कई नेता, कार्यकर्ता और आम लोग भी शब्दों की मर्यादा भूल जाते हैं, वे सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक बातें पोस्ट कर देते हैं। विशेष रूप से सांप्रदायिक मामलों पर ऐसी टिप्पणियों की भरमार देखने को मिलती है। कुछ लोग तो नफरत की इतनी आग उगलते हैं, जिन्हें देखकर कोई भी विवेकशील मनुष्य चिंता में डूब सकता है ... ऐसे लोग देश को कैसा भविष्य देंगे? जब मामला ज्यादा ही तूल पकड़ लेता है तो उनकी गिरफ्तारी होती है, वे जेल जाते हैं, लेकिन उनमें ज्यादा सुधार नहीं आता। प्राय: जेल से लौटने के बाद वे और ज्यादा 'बेखौफ' हो जाते हैं। ऐसी प्रवृत्ति के मूल में 'अहंकार' है। जेल या जुर्माने से अहंकार नहीं टूटता। इसका इलाज 'सेवा' में निहित है। चुनावी माहौल में कोई भी नेता, कार्यकर्ता या आम व्यक्ति किसी धर्म के लिए अमर्यादित और अशोभनीय शब्द बोले तो उससे सज़ा के तौर पर उस (धर्म) के प्रार्थना स्थल में सेवा कराने, स्वच्छता के कार्यों में हाथ बंटाने, श्रद्धालुओं का स्वागत करने, पानी पिलाने, पौधे लगाने और ऐसे अन्य सेवाकार्य करवाए जाएं। इन सबकी वीडियोग्राफी हो। रोज़ाना सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली जाएं। आख़िर में वह व्यक्ति वीडियो के जरिए इस सेवायात्रा के बारे में बताए और सर्वधर्म के प्रति आदरभाव के लिए अच्छा संदेश दे। इस अवधि में उसका आचरण कैसा रहा, इसका प्रमाणपत्र वह प्रबंधन समिति जारी करे। किसी भी धर्म पर ओछी और अभद्र टीका-टिप्पणी करने वालों को ऐसी सज़ा देनी शुरू करें, तो उम्मीद है कि वे वाणी पर संयम बरतेंगे और सार्वजनिक रूप से जो कुछ भी बोलेंगे, सोच-समझकर बोलेंगे।

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