चुनाव नतीजों के सबक

आदर्श राजनीति तो यह होगी कि जो उम्मीदवार जीते, वह विनम्र रहे, सबको साथ लेकर चले

जो उम्मीदवार हार जाए, वह ईवीएम में कमियां ढूंढ़ने के बजाय खुद के प्रदर्शन में रहीं कमियां ढूंढ़े, जनता से जुड़ाव रखे

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद विपक्ष के कुछ नेताओं द्वारा ईवीएम पर सवाल उठाया जाना हास्यास्पद है। पिछले कुछ वर्षों से यह एक अजीब चलन बन गया है। जब (वे) चुनाव जीत जाते हैं तो यह उम्मीदवार की जीत होती है, पार्टी की जीत होती है, तब ईवीएम बिल्कुल ठीक होती है, लेकिन जब चुनाव हार जाते हैं तो आत्म-मंथन करने के बजाय इसका ठीकरा ईवीएम पर फोड़ देते हैं! जो ईवीएम पिछले चुनाव में बिल्कुल ठीक थी, अब उसमें खोट नजर आने लगता है। हार व जीत चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा हैं। एक सीट पर सिर्फ एक उम्मीदवार जीतता है, बाकी सब हारते हैं। आदर्श राजनीति तो यह होगी कि जो उम्मीदवार जीते, वह विनम्र रहे, सबको साथ लेकर चले, सबकी भलाई के लिए ईमानदारी से काम करे। जो उम्मीदवार हार जाए, वह ईवीएम में कमियां ढूंढ़ने के बजाय खुद के प्रदर्शन में रहीं कमियां ढूंढ़े, जनता से जुड़ाव रखे, उसके मुद्दों को आवाज दे, 'विरोध के लिए विरोध' करने के बजाय रचनात्मक भूमिका निभाए। भारत के चुनावी इतिहास में ऐसे बड़े-बड़े नाम हैं, जो कभी न कभी चुनाव हारे, लेकिन उसके बाद उन्होंने सुधार की ओर ध्यान दिया और विजयी हुए। इस बार राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव नतीजों का आकलन करने में ज्यादातर एग्जिट पोल औंधे मुंह गिरे हैं। अपने एसी कक्ष में बैठकर चुनाव विश्लेषण करने वाले राजनीति के कई 'धुरंधर' चकरा गए। यह क्या हुआ, कैसे हुआ? जनता ने सवाल का जवाब दिया कोई और, बटन दबा दिया कोई और! यह 21वीं सदी का मतदाता है। उसके मन की थाह लेना आसान नहीं है। अगर 'हवा' का रुख जानना है तो आम जनता के बीच रहें। वह जैसा खाना खाती है, खुद भी खाएं। वह जैसा पानी पीती है, खुद भी पिएं। वाहवाही सुनने का शौक न पालें। आलोचकों को शत्रु न समझें, उनकी बात ध्यान से सुनें। अगर ख़ुद के लिए जरा भी यह भ्रम पाला कि 'मैं ही सबकुछ जानता हूं', 'मुझे कौन हरा सकता है', तो बाजी पलटते देर नहीं लगेगी। एग्जिट पोल करने वाले 'विशेषज्ञ' हों या नेतागण, इस तथ्य को कभी न भूलें।

इन चुनाव नतीजों का संदेश दूर तक जाएगा। यकीनन इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सियासी कद बहुत बढ़ गया है। भाजपा इस जीत को आगामी लोकसभा चुनाव में जरूर भुनाना चाहेगी। अगर वह राजस्थान, मप्र और छग में से एक या दो राज्यों के चुनाव भी हार जाती तो इसे उसके प्रदेश संगठन की हार के बजाय मोदी की हार के रूप में प्रचारित किया जाता। याद करें, इन राज्यों के वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद यह बहस जोरों पर थी कि अब 'मोदी मैजिक' चला गया, लेकिन पांच साल बाद यह कहना ग़लत नहीं होगा कि 'मोदी मैजिक' न केवल जोरदार ढंग से जारी है, बल्कि कांग्रेस के तमाम वादों पर बहुत भारी भी है। राजस्थान में गहलोत सरकार कई योजनाएं लेकर आई थी। जनता ने महंगाई राहत शिविरों में पंजीकरण करवाकर खूब सेल्फियां ली थीं। कांग्रेस के नेता इन्हें सोशल मीडिया पर देखकर गद्गद हो रहे थे, लेकिन ईवीएम खुली तो नतीजा कुछ और ही आया। अब वे दबी जुबान से स्वीकार कर रहे हैं कि गहलोत-पायलट रार, पेपर लीक, कन्हैया लाल मामला और तुष्टीकरण के आरोप ले डूबे। मप्र में कांग्रेस ने आरोपों के कई तीर छोड़े, लेकिन मोदी-शिवराज के सामने विपक्ष के 'महारथी' निस्तेज साबित हुए। छग में सत्ता विरोधी लहर के साथ भ्रष्टाचार, सट्टा, कांग्रेस में अंतर्कलह का बोलबाला रहा। मोदी समेत भाजपा के शीर्ष नेता अपनी जनसभाओं में इन मुद्दों को जोर-शोर से उठा रहे थे। कांग्रेस रक्षात्मक भूमिका में दिखाई पड़ रही थी। इन सबका नतीजा यह नहीं आता तो और क्या आता? कांग्रेस इन अनुभवों से सबक लेकर तेलंगाना तथा जिन राज्यों में उसकी सरकारें हैं, वहां सुशासन की स्थापना करे। उसके नेतागण आम जनता से जुड़ाव रखें, तुष्टीकरण से बचें और सर्वसमाज का कल्याण सुनिश्चित करें। भाजपा को भी चाहिए कि वह अति-आत्मविश्वास से परहेज करे। जनादेश को लेकर विनम्र रहे। जनता को राहत देने के कार्यों में फुर्ती दिखाए।

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