नोबेल शांति पुरस्कार विजेता पाकिस्तानी नागरिक मलाला यूसुफजई का अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के काबिज होने के बाद वहां महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हो रहे ‘लैंगिक भेदभाव’ को लेकर चिंतित होना और पूरी दुनिया का इस ओर ध्यान दिलाते हुए मुकाबला करने की अपील करना प्रशंसनीय है, लेकिन उनके शब्दों पर एक राजस्थानी कहावत सटीक बैठती है- 'डूंगर बळती दीखै, पगां बळती कोनी दीखै'। बेशक अफगानिस्तान में तालिबान शासन लौटने के बाद महिलाओं और लड़कियों पर जुल्म हो रहा है। उनके लिए स्कूल-कॉलेजों के दरवाजे बंद कर दिए गए हैं। वे स्वतंत्रतापूर्वक नौकरी और रोजगार नहीं कर सकतीं। इन महिलाओं को जुल्म से निजात मिलनी ही चाहिए। इन्हें पढ़ाई, नौकरी, रोजगार ... के मौके जरूर मिलने चाहिएं। मलाला को इनके हक के लिए आवाज उठानी चाहिए। सवाल यह है कि मलाला इतने ही जोर-शोर से कोई अपील उन हिंदू, सिक्ख और ईसाई बच्चियों के लिए क्यों नहीं करतीं, जो उनके मुल्क पाकिस्तान में जुल्म और ज्यादती का सामना कर रही हैं? हर साल सैकड़ों की तादाद में इन मासूम बच्चियों का अपहरण और जबरन धर्मांतरण होता है। सिंध में तो हालात भयावह हैं। वहां हिंदू अपनी बच्चियों को स्कूल भेजने से भी डरते हैं। सिंध के कई हिंदू, जो आर्थिक दृष्टि से काफी साधन-संपन्न हैं, वे सिर्फ इसलिए भारत का रुख कर रहे हैं, ताकि उनकी बेटियां सुरक्षित रहें। इन बच्चियों के अपहरण और जबरन धर्मांतरण की घटनाएं पहले भी होती थीं, लेकिन तब मीडिया की उपस्थिति सीमित थी। आज सोशल मीडिया के कारण ऐसे मामलों को दबाकर रखना मुश्किल होता है। हर महीने ऐसा कोई बड़ा मामला चर्चा में रहता है, जिसे पाकिस्तानी मीडिया भले ही स्थान न दे, लेकिन सोशल मीडिया पर आवाजें उठाई जाती हैं।
क्या मलाला नहीं जानतीं कि पाकिस्तान में हिंदू, सिक्ख व ईसाई बच्चियों के साथ क्या हो रहा है? उन्होंने उनकी सुरक्षा के लिए अब तक कितनी बार आवाज उठाई? यह खामोशी क्यों? मलाला को अफगानिस्तान, सीरिया, इराक, यमन, रोहिंग्या आदि की चिंता होती है, जरूर होनी चाहिए। एक इन्सान दूसरे इन्सान का दर्द नहीं समझेगा तो कौन समझेगा, लेकिन उनके कानों में इन पाकिस्तानी बच्चियों की चीखें क्यों नहीं पहुंचतीं? आखिर वे भी तो इन्सान हैं, वे भी दु:ख-दर्द महसूस करती हैं, उनकी भी गरिमा है, वे भी आत्मसम्मान रखती हैं! मलाला ने सच कहा है कि 'तालिबान की सत्ता के बाद अफगानिस्तान ने केवल बुरे दिन देखे हैं। कम से कम ढाई वर्ष हो गए हैं और अधिकतर लड़कियों ने स्कूल का मुंह नहीं देखा है।' मलाला ने संयुक्त राष्ट्र से ‘अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति को लैंगिक भेदभाव मानने’ की अपील की और उन खबरों का जिक्र किया, जिनमें कहा गया है कि वहां ‘महिलाओं को हिरासत में लिया जा रहा है, जेलों में डाला जा रहा है, पीटा जा रहा है, जबरदस्ती निकाह कराया जा रहा है।’ मलाला यह क्यों भूल जाती हैं कि पाकिस्तान में भी ऐसी हजारों बच्चियां हैं, जो इस खौफ में जी रही हैं कि कहीं उन्हें अगवा कर धर्मांतरित न कर दिया जाए? धर्मांतरण के बाद इन बच्चियों का जल्द से जल्द निकाह करवा दिया जाता है। फिर उनके पास अपने माता-पिता के घर लौट आने का कोई रास्ता नहीं बचता। अगर मामला पुलिस और अदालत तक पहुंचता है तो वे अपने माता-पिता को पहचानने से इन्कार कर देती हैं, क्योंकि उन्हें धमकी दी जाती है कि उन्होंने लौटने की कोशिश की तो पूरे परिवार की हत्या कर दी जाएगी। इसलिए वे मजबूरन खामोश रहती हैं। मलाला को चाहिए कि वे दुनियाभर के शोषितों-पीड़ितों के लिए जरूर आवाज उठाएं, पुरजोर तरीके से उठाएं, लेकिन दो शब्द उन बच्चियों के लिए भी बोल दें, जिनसे उनके मुल्क पाकिस्तान में बुनियादी मानवाधिकार तक छीन लिए गए हैं।