केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का लोकसभा में यह बयान कि 'शिक्षण संस्थानों में आत्महत्या की घटनाएं दु:खद हैं और इसके लिए पूरे सभ्य समाज की जिम्मेदारी बनती है', अत्यंत प्रासंगिक है। निस्संदेह शिक्षण संस्थानों और सर्वसमाज को इस समस्या की ओर ध्यान देकर ठोस समाधान के उपाय तलाशने होंगे।
प्रधान ने ऐसी घटनाओं का दायित्व व्यक्तिगत तौर पर और शिक्षा मंत्री के तौर पर भी लिया, जो बताता है कि वे ऐसे मामलों के प्रति काफी संवेदनशीलता का दृष्टिकोण रखते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुईं, जब विद्यार्थियों ने विभिन्न कारणों से शिक्षण संस्थानों, छात्रावासों या अन्य जगहों पर आत्महत्या जैसा खौफनाक कदम उठाया। चिकित्सा और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए देश-दुनिया में मशहूर कोटा शहर में एक के बाद एक ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने संबंधित बच्चों के अभिभावकों और साथियों की आंखें नम कर दीं।
इसके बाद स्थानीय प्रशासन ने बच्चों पर पढ़ाई के दबाव को कम करने और तनाव से निपटने के लिए कई कदम उठाए, लेकिन अफसोस की बात है कि अब भी हर महीने ऐसी कोई घटना सामने आ जाती है। आज प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा हो गई है। पढ़ाई हो या नौकरी, हर कहीं एक ऐसी दौड़ है, जिसका कोई अंत नजर नहीं आता है!
क्लास टेस्ट में बेहतरीन प्रदर्शन करने का दबाव, परीक्षा में अव्वल आने का दबाव। जब इनसे फुर्सत मिलती है तो प्रतियोगी परीक्षाओं का दबाव, जहां एक-एक पद के लिए सैकड़ों लोग कतार में हैं। अगर मनचाही रैंक मिल गई तो उससे बड़ी परीक्षा का तनाव, अगर न मिली तो उसका तनाव।
परिजन, पड़ोसी, दोस्त, रिश्तेदार ... उस विद्यार्थी से सबकी अपनी-अपनी आकांक्षाएं हैं। इन सबके बीच कोमल युवा मन खुद को अरमानों की चक्की में पिसता महसूस करता है, लेकिन व्यवस्था को बदलने के लिए वह कुछ कर नहीं पाता। वह सिर्फ इतना कर सकता है कि और तैयारी करे ... और पढ़े ... और टेस्ट दे ... देता रहे ... देता रहे!
आखिर हमने अपनी युवा शक्ति को किस चक्रव्यूह में डाल दिया है? निस्संदेह पढ़ाई बहुत जरूरी है और सम्मान के साथ जीवन जीने के लिए धन भी चाहिए, लेकिन आज भी समाज का रवैया उन विद्यार्थियों के लिए बहुत उत्साहजनक नहीं है, जो किसी कारणवश परीक्षा में सफल नहीं हो पाते।
निस्संदेह मेरिट में आने वाले बच्चे प्रतिभाशाली होते हैं, लेकिन उन बच्चों में भी कोई प्रतिभा जरूर होती है, जो उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाए, जिसे ज़माना 'कामयाबी' कहता है। कुदरत ने सबको अलग-अलग खूबियों से नवाजा है। हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए, जो हर बच्चे में मौजूद उस खूबी की पहचान करे और भविष्य में उसे उस रास्ते पर जाने के लिए प्रोत्साहित करे, जिसके लिए वह बना है।
हो सकता है कि आज जिस बच्चे को बहुत सख्ती से त्रिकोणमिति के सूत्र रटाए जा रहे हैं, उसमें मशहूर शेफ बनने की काबिलियत हो ... आज जो देर रात तक इतिहास की तिथियां कंठस्थ कर रहा है, उसमें भविष्य का उद्योगपति छिपा हो ... आज जो बुझे मन से विज्ञान के सिद्धांतों में खोया हुआ है, वह भविष्य में बेहतर फैशन डिजाइनर बनने की योग्यता रखता हो ...! शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो विद्यार्थी के अंतर्मन में छिपी शक्ति से साक्षात्कार कराए, न कि उसे इतना तनाव में डाल दे कि जान पर ही बन आए!
स्कूली पढ़ाई के दौरान अच्छा नागरिक बनने, जीवन में कठिन परिस्थितियों का सामना करने, स्वावलंबी बनने जैसी बातें सिखाई जाएं। कम से कम कोई एक हुनर जरूर सिखाया जाए, ताकि वह बच्चा भविष्य में नौकरी मांगने के बजाय नौकरी देने वाला बने।
बच्चों को 'कामयाबी' का असल मतलब समझाना चाहिए। अथाह पैसा, शानदार बंगला, महंगी गाड़ी, चकाचौंध भरी ज़िंदगी ... इसी का नाम कामयाबी नहीं है। अगर आप ईमानदारी से काम कर रहे हैं, निर्वाह करने में सक्षम हैं और अपने जीवन में खुश हैं, तो यह बहुत बड़ी कामयाबी है। क्षणिक भावावेश में आकर ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए, जो बाद में परिवार व साथियों के लिए दु:ख का कारण बने।