कारगिल युद्ध के बारे में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का हालिया बयान अपनी छवि चमकाने और खुद को बड़ा नेता दिखाने की एक नाकाम कोशिश है। वे यह कहकर सहानुभूति पाना चाहते हैं कि साल 1999 में उन्हें सत्ता से इसलिए हटा दिया गया था, क्योंकि तत्कालीन थल सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ के कारगिल युद्ध षड्यंत्र का समर्थन नहीं किया था।
अगर शरीफ हकीकत में 'शरीफ' होते तो उनके बयान पर कुछ विश्वास किया जा सकता था, लेकिन उनका अपना रिकॉर्ड बहुत दागदार है। पाक में चुनाव सिर पर देख नवाज यह दिखाना चाहते हैं कि वे तो शांति के दूत हैं, असल खराबी फौज में है। कारगिल युद्ध पाकिस्तान के धोखे और कपट का नतीजा था। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जिस नेक नीयत के साथ बस लेकर लाहौर गए थे, पाक ने उसका मान नहीं रखा था।
आज नवाज शरीफ यह कहकर खुद को पाक-साफ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें कारगिल युद्ध के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी, लेकिन उनके देश के बड़े-बड़े पत्रकार सबूतों के साथ खुलासा कर चुके हैं कि ये पूर्व प्रधानमंत्री भी मुशर्रफ के गुनाह में बराबर के भागीदार थे। मुशर्रफ ने नवाज को यह सब्ज-बाग दिखाया था कि कारगिल युद्ध षड्यंत्र सफल होने के बाद आपका नाम पाकिस्तान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा!
उसके बाद जब भारतीय थल सेना और वायुसेना ने जवाबी कार्रवाई की तो इस्लामाबाद व रावलपिंडी के होश फाख्ता हो गए थे! ये ही नवाज शरीफ थे, जब वाजपेयी ने इन्हें फोन कर फटकारा तो जनाब मासूम बनने का ढोंग करते रहे, जबकि इन्हें अपनी फौज की करतूतों के बारे में सब पता था। कारगिल युद्ध में भारतीय सैनिकों ने अपना लहू देकर तिरंगे की आन-बान-शान को बढ़ाया, लेकिन उस घटना से जो सबक मिले, उन्हें सरकारों को ज्यादा गंभीरता से लेना चाहिए था।
चाहे संसद भवन हमला हो, 26/11 हो या देश के अन्य हिस्सों में होने वाले बम धमाके, पाकिस्तान अपनी आतंकी नीयत और फितरत पर कायम रहा। वहीं, भारत में बहुत लोग यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि क्रिकेट मैच करवाने से 'दोस्ती' हो जाएगी। इस बीच, मुशर्रफ ने नवाज को कुर्सी से उतार फेंका, लेकिन भारत के मामले में इन दोनों का चरित्र एक जैसा था। प्राय: भारतवासियों में 'शत्रुबोध' का अभाव होता है। उन्हें लगता है कि पाकिस्तान के राजनेता तो भारत के साथ मधुर संबंध चाहते हैं, बस इनकी फौज 'दाल-भात में मूसलचंद' बन जाती है।
पाकिस्तान में कोई भी प्रधानमंत्री आए, कोई भी थल सेना प्रमुख बने, वे भारत का अहित ही सोचेंगे। कारगिल युद्ध के बाद नवाज की लोकप्रियता तेजी से गिर रही थी। वे मुशर्रफ की बलि लेकर हीरो बनना चाहते थे। उन्होंने मुशर्रफ को हटा भी दिया था, लेकिन वे उनसे ज्यादा होशियार निकले और तख्ता-पलट कर तानाशाही करते रहे। नवाज का असल दु:ख है- मुझे क्यों निकाला? भारत-पाक संबंधों की बेहतरी उनकी प्राथमिकता में नहीं है।
उन्होंने साल 2013 में फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी तो आतंकवाद को परवान चढ़ाते रहे। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल के शपथ-ग्रहण समारोह में नवाज को निमंत्रित किया था। वे उनके पारिवारिक कार्यक्रम में लाहौर भी गए थे। वही लाहौर, जहां कभी वाजपेयी ने भारत-पाक संबंधों को मधुर बनाने का आह्वान किया था। लेकिन बदले में क्या मिला? पठानकोट हमला, उरी हमला, दर्जनों आतंकवादियों की घुसपैठ!
नवाज शरीफ खुद को अमन-पसंद बताकर अपने फौजी जनरलों को खलनायक और लोकतंत्र के दुश्मन के तौर पर दिखाना चाहते हैं, ताकि उन्हें (नवाज) वैश्विक संगठनों से कुछ हिमायत मिल जाए। उनकी यह भी मंशा है कि भारत के रुख में थोड़ी नरमी आ जाए। नवाज शरीफ याद रखें कि काठ की हांडी एक बार ही चढ़ती है! भारत न तो आपके विश्वासघात को भूलेगा और न माफ करेगा।