प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'परीक्षा पे चर्चा' कार्यक्रम के दौरान विद्यार्थियों, शिक्षकों और अभिभावकों से बातचीत के दौरान जिन बिंदुओं का उल्लेख किया, वे अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। विद्यार्थियों के जीवन से परीक्षा का तनाव दूर करने और उन्हें बेहतर प्रदर्शन में मदद करने के लिए इन बिंदुओं पर विचार करना चाहिए। प्रधानमंत्री का यह कथन वर्तमान में अत्यंत प्रासंगिक है कि 'माता-पिता को अपने बच्चों के रिपोर्ट कार्ड को उनका विजिटिंग कार्ड नहीं बनाना चाहिए।' प्राय: यह देखने में आता है कि जब बच्चों के अच्छे अंक आ जाते हैं तो माता-पिता उनकी तारीफ के लिए आस-पास के लोगों के सामने रिपोर्ट कार्ड लेकर (अंकों का) जिक्र करते हैं। वे अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर भी इसे पोस्ट करते हैं। इसके पीछे उनकी मंशा अपनी खुशी साझा करनी होती है। वहीं, अगर बच्चा उनकी आशा के अनुरूप अंक नहीं ला पाया तो परिवार के सामने रिपोर्ट कार्ड लेकर कड़ी आलोचना की जाती है। ये दोनों ही तरीके बच्चे पर दबाव डालते हैं। अगर अंक ज्यादा आ गए तो बच्चा यह सोचकर चिंतित हो जाता है कि भविष्य में ऐसा प्रदर्शन नहीं कर पाया तो माता-पिता अपने परिचितों और मित्रों के साथ क्या साझा करेंगे! कम अंक आने पर बच्चा कड़ी आलोचना और फटकार सुनकर हीनभावना महसूस करने लगता है। मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के दौरान कुछ बच्चों के मन में आत्महत्या जैसे खौफनाक कदम उठाने के ख़याल आने के पीछे कहीं-न-कहीं (बेहतर प्रदर्शन के लिए) पारिवारिक और सामाजिक दबाव भी एक वजह होता है। पढ़ाई या टेस्ट में पिछड़ने के बाद बच्चे के मन में सबसे पहला सवाल यही पैदा होता है- 'अगर मैं सफल नहीं हो पाया तो परिवार क्या कहेगा, आस-पास के लोग क्या कहेंगे?' ऐसे समय में विशेषज्ञों एवं मनोवैज्ञानिकों से परामर्श लेना चाहिए। जीवन अनमोल है। इसे क्षणिक आवेश और निराशा के भंवर में फंसकर समाप्त कर लेना अक्लमंदी नहीं है।
प्रधानमंत्री ने उचित ही कहा कि 'अपने बच्चों के बीच कभी प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता के बीज न बोएं, बल्कि भाई-बहन एक-दूसरे के लिए प्रेरणा-स्रोत बनें।' कई परिवारों में जब किसी बच्चे को पढ़ाई के लिए 'प्रोत्साहन' देने की बात आती है तो रिश्तेदारों या आस-पास के बच्चों में से किसी का उदाहरण दिया जाता है। कुछ इस तरह भी कहा जाता है- 'उसे देख, वह तो कक्षा में प्रथम आया है और तुझे बमुश्किल द्वितीय श्रेणी मिली है ... उनका लड़का तो पढ़ाई में हर साल पुरस्कार लेकर आता है, तुम आजतक खाली हाथ हो ... उस रिश्तेदार के तो दोनों बच्चे अच्छी जगह नौकरी करने लगे, हमारे बच्चे अब तक फॉर्म ही भर रहे हैं ... तुम पर इतना पैसा लगा दिया, लेकिन परिणाम शून्य है ...।' ऐसी तुलना कालांतर में प्रतिद्वंद्विता, ईर्ष्या तथा शत्रुता में बदल सकती है। निस्संदेह बच्चे को अच्छे प्रदर्शन के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। उसकी कमियां भी बतानी चाहिएं, लेकिन इस दौरान शब्दों के चयन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। शब्द ऐसे हों, जिन्हें सुनकर बच्चा अपनी ग़लतियां सुधारने के लिए प्रोत्साहन पाए, न कि उसमें हीनभावना पैदा हो। उदाहरण के लिए, एक विद्यार्थी अपनी परीक्षा की तैयारी के लिए सुबह जल्दी नहीं उठता। माता-पिता चाहते हैं कि वह आलस्य छोड़े और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे। इसके लिए अगर उसके सामने ऐसे महापुरुषों के उदाहरण प्रस्तुत किए जाएं, जो सुबह जल्दी उठकर अध्ययन करते थे, तो उसे प्रेरणा मिलेगी। उसे देर तक सोने से होने वाली हानियों के बारे में भी बताना चाहिए। अगर उसे सुबह जल्दी उठने में दिक्कत होती है तो उसकी दिनचर्या में उचित बदलाव करने में मदद की जा सकती है। वहीं, अगर उसे यह कहकर जगाएंगे कि 'सूरज सिर पर चढ़ आया है और तुम अभी तक सो रहे हो, दुनिया आगे निकल गई ... तुम ज़िंदगी में क्या कर लोगे', तो उसे निश्चित रूप से बुरा लगेगा और इससे भविष्य में सुधार की संभावना कम ही होगी। नज़रिए में बदलाव और प्रेरक शब्द, दोनों मिलकर ऐसी शक्ति बना सकते हैं, जिससे विद्यार्थी बड़ी-बड़ी बाधाओं को उत्साहपूर्वक पार कर सकता है।