श्रीराम मंदिर के निर्माण और उसमें प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले कुछ 'बुद्धिजीवियों' द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब धीरे-धीरे ही सही, लेकिन सप्रमाण मिलते जा रहे हैं। उनकी ओर से 'तर्क' दिया जाता था कि 'मंदिरों की ओर ध्यान देने से बेहतर है कि लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाए ... मंदिर बनाने से बेहतर है कि वहां स्कूल या अस्पताल बना दिया जाए!' निस्संदेह सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे सबके लिए रोजगार की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि भी खुलने चाहिएं, लेकिन श्रीराम जन्मभूमि का उपयोग भगवान के मंदिर के लिए ही किया जाना न्यायसंगत था (जैसा कि उच्चतम न्यायालय से भी निर्णय आया)। प्राण-प्रतिष्ठा के एक महीने बाद अयोध्या की जो तस्वीर उभरकर सामने आई है, वह शोध का विषय हो सकती है। आज देश के अलग-अलग हिस्सों से अयोध्या आने वाली ट्रेनें यात्रियों से पूरी तरह भरी हुई हैं। लोग खूब टिकटें बुक करवा रहे हैं। अयोध्या में खान-पान, मिठाई, कपड़ों, कलाकृतियों, प्रतिमाओं, फोटोग्राफी और अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों के लिए रोजगार के अवसरों का सृजन हो रहा है। पहले जो लोग दिन में बमुश्किल 500 रुपए कमा पाते थे, अब उनकी कमाई तीन-चार गुणा बढ़ गई है। लोग रामभक्तों के ठहरने के लिए अपने घरों में व्यवस्थाएं कर रहे हैं, जिससे बढ़िया आमदनी हो जाती है। ऐसे कई परिवार हैं, जो पहले रोजगार के सिलसिले में अयोध्या में अपना घर छोड़कर दूसरे शहरों में चले गए थे। अब वे वापस लौट रहे हैं। वे भगवान की नगरी में रहते हुए काम करना चाहते हैं।
अंग्रेजों ने जो शिक्षा प्रणाली चलाई, उसमें इस बात पर जोर दिया गया कि पश्चिमी विचारकों के एक-एक शब्द को सत्य बताया जाए और सनातन संस्कृति को लेकर हीनभावना पैदा की जाए। वे इस उद्देश्य में काफी हद तक सफल भी हुए, लेकिन अब भ्रम के पर्दे हटते जा रहे हैं। अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठान के बाद जितनी बड़ी संख्या में लोग उमड़ रहे हैं, अगर ऐसा आयोजन अमेरिका, ब्रिटेन या जर्मनी जैसे देशों में करना हो तो आयोजकों को महीनों पहले विज्ञापनों में अरबों डॉलर खर्च करने पड़ते। जबकि भारत में महाकुंभ से लेकर लक्खी मेलों तक में लोग जयकारे लगाते हुए, पदयात्रा करते हुए आ जाते हैं। वे किसी विज्ञापन की प्रतीक्षा नहीं करते। यह है भक्ति की शक्ति, जिसे पश्चिम के लिए अभी समझना संभव नहीं है। भारत में ऐसे कई स्थान हैं, जो अध्यात्म के कारण जाने जाते हैं। उनकी पूरी अर्थव्यवस्था इसी धुरी पर टिकी है। इससे छोटे-बड़े, कई स्तर पर रोजगार के अवसरों का सृजन होता है। मंदिरों के बारे में यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है कि ये केवल पूजा-पाठ के स्थान होते हैं। सनातन धर्म मानव जीवन के विभिन्न आयामों को शामिल करता है। प्राचीन काल में हनुमान मंदिर के साथ व्यायामशाला होती थी। सरस्वती मंदिर के एक हिस्से में पुस्तकालय, विद्यालय होते थे। कई मठों-मंदिरों द्वारा नि:शुल्क औषधियां दी जाती थीं। उनके द्वारा विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति, कन्याओं के विवाह के लिए आर्थिक सहयोग, अनाथों के लिए भोजन-वस्त्र और जरूरतमंद लोगों के लिए कई तरह की चीजों का इंतजाम किया जाता था। आज भी अनेक मंदिरों-मठों द्वारा सामाजिक उत्थान के लिए ऐसे सेवाकार्य किए जा रहे हैं। भारत में जिन-जिन स्थानों का संबंध प्रसिद्ध मंदिरों और आध्यात्मिक-ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाओं से है, वहां न केवल सुविधाओं का विस्तार करना चाहिए, बल्कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए विशेष रूप से विकसित करना चाहिए।