उम्मीद की किरण

यह नागरिकता देने का कानून है, लिहाजा किसी को आशंकित होने की जरूरत नहीं है

वे भी हमारे भाई-बहन हैं, हमें उन्हें निराश नहीं करना चाहिए

केंद्र सरकार द्वारा नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए), 2019 से जुड़े नियमों को अधिसूचित किया जाना पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से 31 दिसंबर, 2014 से पहले आए हिंदू, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय के लिए उम्मीद की ऐसी किरण है, जिसकी वे वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें भारत की नागरिकता मिलने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। अब उनके लिए नागरिकता पाने का रास्ता साफ हो जाएगा। केंद्र सरकार ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि यह नागरिकता देने का कानून है, लिहाजा किसी को आशंकित होने की जरूरत नहीं है। जिस व्यक्ति के पास पहले से भारत की नागरिकता है, उसे सीएए किसी भी रूप में प्रभावित नहीं करेगा। सीएए को लागू किया जाना बहुत जरूरी था। दुर्भाग्य से पिछली सदी में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिनका दंश आज तक मानवता भोग रही है। भारत-विभाजन ने पाकिस्तान (जिसमें आज का बांग्लादेश भी शामिल है) तो बना दिया, लेकिन उससे समस्याएं कम नहीं हुईं। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि पाकिस्तान के निर्माण ने मानवता के लिए ऐसा घाव पैदा कर दिया, जिसने कई परिवारों को बहुत दर्द दिया है। अब सीएए से उम्मीद है कि वह उन्हें राहत देगा। आज (सोशल मीडिया के कारण) पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की हालत किसी से छिपी नहीं है। अफगानिस्तान में तो अल्पसंख्यक थोड़े-से बचे हैं। पाकिस्तान में भी उन्हें साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है। पाक में जो अल्पसंख्यक कभी 24 प्रतिशत हुआ करते थे, वे आज सिर्फ 3 प्रतिशत क्यों रह गए हैं? ऐसा रातोंरात नहीं हुआ है। इसके लिए सरकारी और सामाजिक स्तर पर 'कदम' उठाए गए हैं।

वहां अल्पसंख्यकों को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। विभिन्न अवसरों पर उनके आराध्यों के लिए आपत्तिजनक शब्द बोले जाते हैं, जिसका वे जवाब भी नहीं दे सकते, क्योंकि उस स्थिति में उन पर ईशनिंदा का मुकदमा कर दिया जाता है। उनकी बहन-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। पाक में हर साल एक हजार से ज्यादा अल्पसंख्यक बच्चियों के अपहरण, जबरन धर्मांतरण और निकाह कराने की घटनाएं होती हैं। बांग्लादेश में भी हालात बिगड़ते जा रहे हैं। वहां हर साल नवरात्र में हिंसक घटनाएं होती हैं। चरमपंथी तत्त्व जानबूझकर अफवाहें फैलाते हैं और हिंसा भड़काते हैं। आखिर, ये अल्पसंख्यक कहां जाएंगे? इनके लिए आवाज उठाने वाला, इन्हें आसरा देने वाला कोई तो होना चाहिए। सीएए के बारे में कुछ 'बुद्धिजीवियों' का यह तर्क कि 'इससे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बहुसंख्यक समुदाय को अलग रखकर उससे भेदभाव किया गया है', तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। जब यह कानून है ही (इन तीन देशों के) ऐसे अल्पसंख्यकों के लिए, जिन्हें उनकी धार्मिक पहचान के कारण प्रताड़ित किया गया है, तो उसमें इन देशों के बहुसंख्यक कैसे शामिल हो सकते हैं? भारत समेत दुनिया के कई देशों में अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए योजनाएं चलाई जा रही हैं। क्या इस आधार पर यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसी योजनाएं बहुसंख्यकों से भेदभाव करती हैं? सीएए की जरूरत ही नहीं पड़ती, अगर उक्त तीनों देशों में अल्पसंख्यकों को नहीं सताया जाता। वहां से हिंदू, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी इसलिए भारत नहीं आए हैं, क्योंकि यहां अर्थव्यवस्था बेहतर है, बल्कि वे तो अपनी जान और इज्जत की सलामती के लिए आए हैं। सीएए उनके लिए वह दरवाजा है, जिसे वे बड़ी उम्मीदों के साथ खटखटा रहे हैं। वे भी हमारे भाई-बहन हैं। हमें उन्हें निराश नहीं करना चाहिए।

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