अभी लोकसभा चुनाव कार्यक्रम की सिर्फ घोषणा हुई है, लेकिन कुछ राजनीतिक दलों ने ईवीएम को निशाना बनाना शुरू कर दिया। उनका यह रुख हैरान करने वाला है। जब चुनाव आयोग पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि ईवीएम पूरी तरह से सुरक्षित है, इन दलों को बुलाकर इनकी आशंकाओं के निवारण की कोशिश कर चुका है, तो अब इस मुद्दे को क्यों उठाया जा रहा है? क्या इन राजनीतिक दलों को अब भी विश्वास नहीं है? कांग्रेस का यह बयान कि 'वह ईवीएम के नहीं, बल्कि उसमें हेरफेर के खिलाफ है', का मतलब वही निकलता है। पिछले एक दशक में विपक्षी दलों ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर कई बार सवाल उठाए हैं, लेकिन वे अपने संदेह के पक्ष में ठोस सबूत नहीं दे सके। अगर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हार जाएं तो ईवीएम में गड़बड़ है। अगर तेलंगाना में चुनाव जीत जाएं तो यह नेतृत्व का करिश्मा है। अगर गुजरात में चुनाव हार जाएं तो उसका ठीकरा ईवीएम के सिर, अगर हिमाचल प्रदेश में चुनाव जीत जाएं तो खुशी की लहर! ईवीएम के निर्माण से लेकर उन्हें मतदान स्थलों तक पहुंचाने और वहां से मतगणना केंद्रों तक लाने में केंद्र सरकार और राज्य सरकार के कर्मचारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन सबके बीच, जब मतदान के बाद ईवीएम जमा करा दी जाती हैं तो वहां सशस्त्र बलों का कड़ा पहरा होता है। उसके आस-पास भी किसी को जाने नहीं दिया जाता। अगर कोई व्यक्ति संदिग्ध हरकत करता पाया गया तो कठोर कार्रवाई हो सकती है। क्या इतने बड़े स्तर पर विशेषज्ञों और सरकारी मशीनरी को तैनात कर देने के बाद भी कोई व्यक्ति हजारों-लाखों ईवीएम के आंकड़े बदल सकता है?
साल 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद ईवीएम के साथ कथित छेड़छाड़ की आशंकाओं के मद्देनजर समाजवादी पार्टी के एक उम्मीदवार वाहन में बैठकर स्ट्रांग रूम पर दूरबीन से कड़ी नजर रख रहे थे। उनके कार्यकर्ता भी इस काम में योगदान दे रहे थे। जब नतीजे आए तो वे सात हजार से ज्यादा मतों के अंतर से चुनाव हारे। ईवीएम पर सवाल उठाते हुए दो तर्क दिए जाते हैं- 1. सभी वीवीपैट (पर्चियों) की गिनती की जाए। 2. ईवीएम को हटाकर मतपत्र से मतदान कराया जाए। अगर 100 प्रतिशत वीवीपैट की गिनती की जाएगी तो ईवीएम लाने का औचित्य ही क्या रहेगा? यह तो पूर्णत: मतपत्रों की गणना जैसी प्रक्रिया हो गई! अगर ईवीएम को हटाकर मतपत्र से चुनाव कराया जाए तो याद रखें कि इससे विवाद कम नहीं होंगे, बल्कि खूब बढ़ेंगे। ज्यादा दूर न जाएं, अस्सी या नब्बे के दशक में होने वाले चुनावों से संबंधित किस्से ही पढ़ लें, जो इंटरनेट की सहायता से आसानी से मिल जाएंगे। मतपत्र पर ठप्पा इधर-उधर लग जाता तो वोट खारिज हो जाता था। इस बात को लेकर मतगणना केंद्रों पर भारी हंगामा होता था। एक पक्ष कहता कि यह वोट हमें मिला है, दूसरा पक्ष कहता कि हमें मिला है। उसके बाद जमकर झगड़े होते थे। हर चुनाव के बाद ऐसे मतपत्रों की अच्छी-खासी तादाद होती थी। कई इलाकों में बूथ कब्जा लिए जाते थे। बाहुबली किस्म के नेता अपने साथ लठैत लेकर आते, जो मतपत्रों पर ठप्पे लगाकर पेटी में डालते जाते थे। कई जगह मतपेटियां लूटने की कोशिशें की जातीं। ऐसी भी खबरें आतीं, जिनसे पता चलता था कि उपद्रवी तत्त्वों ने मतपेटी में पानी डाल दिया। मतपत्रों की गणना में भी बहुत समय लगता था। ईवीएम ने ये सभी समस्याएं दूर कर दीं। राजनीतिक दल चुनाव आयोग, चुनाव प्रक्रिया और जनता-जनार्दन पर विश्वास रखें। देश चुनाव सुधारों की लंबी यात्रा करते हुए यहां तक पहुंचा है। यह पीछे लौटने का समय नहीं है।