एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेता का यह कहना कि 'वे 400 लोगों से नामांकन दाखिल कराने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि चुनाव मतपत्र से हों', पर यही कहा जा सकता है कि वे अब भी ईवीएम को लेकर गंभीर पूर्वाग्रहों में उलझे हुए हैं। वरिष्ठ नेताओं को ऐसे बयान देने के बजाय तर्क सहित अपनी बात रखनी चाहिए। इन बयानों से मतदाताओं में यह संदेश जाता है कि नेताजी चुनाव नतीजे आने से पहले ही भूमिका बांध रहे हैं। अगर मैदान फतह कर लिया तो वे इसे अपना करिश्मा बताएंगे, राष्ट्रीय नेतृत्व को दिखाएंगे कि यह है हमारा जलवा! अगर बाज़ी हाथ से निकल गई तो यह कहते हुए पूरा 'कसूर' ईवीएम पर डाल देंगे कि हम तो पहले ही जानते थे कि ज़रूर कोई गड़बड़ होगी, मतपत्र से वोट डाले जाते तो हम दिखा देते कि चुनाव क्या होता है और कैसे लड़ा जाता है! सवाल है- मतपत्र से चुनाव करवाने पर इतना जोर क्यों? क्या वे ईवीएम से ज्यादा मतपत्र को विश्वसनीय मानते हैं अथवा यह कहना चाहते हैं कि मतपत्र से चुनाव कराने से किसी तरह की समस्या पैदा नहीं होगी? देश में चुनाव-सुधारों का लंबा इतिहास रहा है। हम कई कठिनाइयों को पार करते हुए 'ईवीएम युग' तक पहुंचे हैं। ये सुधार जारी रहेंगे। आने वाले वर्षों/दशकों में जो भी नई तकनीक आएगी, उसे जरूरत के मुताबिक अपनाया जाएगा। यह कहना कि इन सबको छोड़कर दोबारा 'मतपत्रों' वाले दौर में लौटा जाए, तो यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है।
प्राय: कुछ नेतागण यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि जब मतपत्रों से वोट डाले जाते थे, मीडिया का इतना प्रसार नहीं था, तकनीक का कम इस्तेमाल होता था, लोग किसी उम्मीदवार / पार्टी को इसलिए वोट देते थे, क्योंकि उनके बड़े-बुजुर्गों ने भी उसे ही वोट दिया था, तब 'सबकुछ' ठीक था। जब से मतपत्रों और मतपेटियों की जगह ईवीएम ने ले ली, मीडिया चौबीसों घंटे समाचार प्रकाशित-प्रसारित करने लगा, हर हाथ में मोबाइल फोन आ गया, लोग क्षेत्रीय व राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करने लगे, वे वोट देने में किसी परंपरा के बजाय स्वेच्छा व स्वतंत्रता को वरीयता देने लगे, तब से चीज़ें गड़बड़ हो गई हैं! नेता भले ही विभिन्न मंचों से ऐसी बातें दोहराते रहें, लेकिन हकीकत तो यह है कि भारत के चुनाव आयोग और चुनाव प्रक्रिया पर आम जनता का भरोसा ज्यादा मजबूत हुआ है। आज लोग इस बात को लेकर बिल्कुल तैयार नहीं होंगे कि मतपत्रों वाला वही पुराना दौर फिर लौट आए, जब ठप्पा जरा-सा भी इधर-उधर लगने से उनका वोट खारिज हो जाता था। न केवल वोट खारिज हो जाता था, बल्कि उस पर दावा करने की कोशिश में मतगणना केंद्रों पर जमकर झगड़े होते थे। हर चुनाव में खारिज होने वाले ऐसे मतपत्रों की तादाद काफी ज्यादा होती थी। जिन सीटों पर मामूली अंतर से हार-जीत का फैसला होता, वहां झगड़े ज्यादा होते थे। ऐसे मामले अदालतों में चले जाते थे। ईवीएम ने इन सभी समस्याओं को दूर कर दिया। मतदाताओं के लिए इसे इस्तेमाल करना भी आसान है। इस पर निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए जो भी वोट डाले जाएंगे, वे वैध होंगे। मतपत्रों से मतगणना में बहुत समय लगता था। मतदान प्रक्रिया के बाद जब कर्मचारी (निर्धारित दिन) मतगणना के लिए बैठते तो उन्हें मतपत्रों की छंटनी करनी होती थी। एक भी मतपत्र इधर-उधर हुआ तो हंगामा मच जाता था। ईवीएम से मतगणना बहुत तेजी से होती है। दोपहर तक तो तस्वीर लगभग साफ हो जाती है। नेताओं को स्वतंत्रता है कि वे मतपत्रों के दौर में लौट जाने का ख्वाब देखते रहें, लेकिन जनता चाहती है कि नई तकनीकों को अपनाते हुए चुनाव सुधारों का सिलसिला लगातार आगे बढ़ता रहे।