राजस्थान में अक्षय तृतीया से पहले उच्च न्यायालय का राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देना कि 'कोई बालविवाह न हो', एक महत्त्वपूर्ण सुधार की ओर बड़ा कदम है। कई लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि आज भी बालविवाह होते हैं! हालांकि सरकार की सख्ती, अधिकारियों की सजगता और जनता की जागरूकता के कारण ऐसे मामलों में बहुत कमी आई है, लेकिन कड़वी हकीकत है कि आज भी बालविवाह होते हैं। राजस्थान के कुछ इलाकों में चोरी-छिपे बालविवाह कराने की घटनाएं सामने आ जाती हैं। पहले, प्रिंट मीडिया ही इसका खुलासा करता था। अब सोशल मीडिया भी मैदान में है। अगर कहीं बालविवाह होता है और पड़ोसियों या मोहल्ले वालों को भनक लग जाती है तो वे प्रशासन को सूचना दे देते हैं। ऐसे भी मामले देखे गए, जब लड़की ने फोन या सोशल मीडिया के जरिए प्रशासन तक अपनी आवाज पहुंचाई और उसे मदद भी मिली। बालविवाह का जिक्र आते ही राजस्थान के एक जिले के वीडियो से जुड़ीं पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं, जब सोशल मीडिया का तो इतना प्रसार नहीं हुआ था, लेकिन मोबाइल फोन गांव-ढाणियों तक पहुंच गए थे। एक मासूम बालिका, जिसका देर रात बालविवाह कराया जा रहा था, को जब फेरों के लिए लाया गया तो वह पूरी तरह नींद में थी। उसे पता ही नहीं था कि उसके भविष्य के साथ कैसा खिलवाड़ किया जा रहा है? बाद में मीडिया और प्रशासन वहां पहुंचे और सख्त कार्रवाई हुई। बालविवाह की रोकथाम में मीडिया और सोशल मीडिया तो अपनी भूमिका निभा ही रहे हैं। प्रशासन की भूमिका भी प्रशंसनीय रही है। आज ऐसी घटनाओं में बड़ी कमी आई है तो उसके लिए अधिकारियों की सजगता को श्रेय देना होगा।
प्राय: बालविवाह के पक्ष में यह कुतर्क दिया जाता है कि 'पुराने ज़माने में ऐसा ही होता था, हमारे बड़े-बुजुर्गों के बालविवाह हुए थे और उनका दांपत्य जीवन बहुत खुशहाल रहा था!' वे लोग यह कहते हुए कई महत्त्वपूर्ण बिंदुओं की अनदेखी कर देते हैं। पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों की ही बात करें तो इस अवधि में परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं। आज बच्चों पर पढ़ाई-लिखाई का जैसा दबाव है, वैसा उस दौर में नहीं होता था। कामकाज के विकल्प सीमित हुआ करते थे। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई (जो बहुत कम लोग करते थे) के बाद प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के लिए ऐसी प्रतिस्पर्धा नहीं होती थी। लोगों का जीवन (आज की तुलना में) बहुत सादा था। कमाई कम थी, खर्चे भी कम थे। आज शहरों में मध्यम वर्गीय परिवारों का खर्च एक व्यक्ति की कमाई से चलाना बहुत मुश्किल है। समय के साथ सामाजिक मान्यताएं भी बदली हैं। अगर देश को शिक्षित, विकसित, सशक्त बनाना है तो बहुत जरूरी है कि नारीशक्ति को भी शिक्षा से लेकर रोजगार तक समान अवसर दिए जाएं। क्या बालविवाह जैसी प्रथाओं के रहते ऐसा होना संभव है? विवाह केवल ढोल बजाने, नए कपड़े पहनने, तरह-तरह के पकवान खाने का एक आयोजन भर नहीं है। यह अपने साथ बड़ी जिम्मेदारी भी लेकर आता है। मासूम बालक-बालिका, जिनकी उम्र खिलौनों से खेलने की हो, किताबों से देश-दुनिया को जानने की हो, उन्हें फेरों के लिए बैठा देना उनके जीवन से अन्याय ही माना जाएगा। सरकार, प्रशासन, मीडिया, समाज ... हर स्तर पर ऐसे आयोजनों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। जो कोई बालविवाह करे, कराए, उसमें सहयोग दे, उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। कार्रवाई हो भी रही है। राजस्थान उच्च न्यायालय ने सत्य कहा कि 'अधिकारियों के प्रयासों के कारण बालविवाह की संख्या में कमी आई है, लेकिन अब भी बहुत कुछ करने की जरूरत है।' सामूहिक प्रयासों से ही इस प्रथा का पूर्णत: उन्मूलन किया जा सकता है।