काठ की हांडी नहीं चढ़ेगी

पाकिस्तानी उपदेश बहुत अच्छे देते हैं, लेकिन जब खुद की बारी आती है तो फौरन उससे दूर हो जाते हैं

फवाद हुसैन हों या कोई और ... उन्हें पूरी आज़ादी है कि वे बीते दौर की 'सुनहरी यादों' के नाम पर गिले-शिकवे करते रहें

भारत में लोकसभा चुनावों के संबंध में पाकिस्तानी नेताओं की बयानबाजी अनावश्यक होने के साथ ही हैरान करने वाली भी है। अगर उन्हें लोकतंत्र की इतनी ही गहरी समझ है तो सबसे पहले अपने देश में इसकी स्थापना करें, जिसे आज भी फौजी बूटों तले रौंदा जा रहा है। इन दिनों वे महात्मा गांधी और पं. जवाहरलाल नेहरू का भी खूब जिक्र कर रहे हैं। उन्हें बहुत 'पीड़ा' हो रही है कि आज का भारत 'गांधी और नेहरू' के ज़माने वाला भारत नहीं रहा। समाचार चैनल हों या सोशल मीडिया, पाकिस्तान के नेता इस बात पर 'चिंता' जताते मिल जाएंगे कि आज का भारत 'वो भारत' नहीं रहा, जो उनकी हरकतों पर नरमी दिखाया करता था। पाकिस्तान के पूर्व मंत्री फवाद हुसैन भी ऐसी ही बातें कर रहे हैं। इनसे कोई पूछे कि अगर आपके दिलों में महात्मा गांधी और पं. नेहरू के लिए इतना ही सम्मान था तो वर्ष 1947 में जम्मू-कश्मीर में घुसपैठिए क्यों भेजे थे? क्यों लूट-मार मचाई थी? उस समय आपने गांधीजी और नेहरूजी से विश्वासघात किया, मर्यादा का घोर उल्लंघन किया और पीओके के तौर पर भारत के भूभाग पर अवैध कब्जा कर लिया। आपको चाहिए कि आज अपनी उस गलती को सुधारें और पीओके, गिलगित, बाल्टिस्तान समेत वह पूरा इलाका वापस भारत को लौटा दें! क्या ऐसा कर दिखाने का साहस मौजूद है? करना तो बहुत दूर, कहने का साहस भी किसी में नहीं है! पाकिस्तानी नेताओं, अधिकारियों और उच्च वर्ग समेत समाज के बहुत बड़े तबके के साथ एक विचित्र समस्या है। ये उपदेश बहुत अच्छे देते हैं, लेकिन जब खुद की बारी आती है तो फौरन उससे दूर हो जाते हैं।

आज पश्चिमी देशों में बड़ी तादाद में पाकिस्तानी रहते हैं। वे वहां 'बराबर अधिकार' मांगते हैं, जो उन्हें पहले ही मिले होते हैं। उसके बाद विशेष अधिकार मांगते हैं। अभिव्यक्ति की ज्यादा से ज्यादा आज़ादी मांगते हैं। उसके बाद और ज्यादा आज़ादी मांगते हैं। राजनीति में हिस्सा मांगते हैं। अपने लिए 'अलग' व्यवस्था मांगते हैं। उनकी लड़कियों से शादी करते हैं। सरकार की ओर से मिलने वाली तमाम सुविधाओं का लाभ उठाकर भी हमेशा शिकायतें करते रहते हैं। उन देशों की संस्कृति और सामाजिक परंपराओं को हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं। खुद को हमेशा पीड़ित दिखाते हैं। जब मौका मिलता है, अपने लिए और ज्यादा अधिकार मांगते हैं, लेकिन पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को कोई अधिकार नहीं देना चाहते। वे उन्हें सताने में कोई कसर नहीं छोड़ते, सुख-शांति से त्योहार भी नहीं मनाने देते। उनकी बहन-बेटियों के अपहरण व जबरन धर्मांतरण का समर्थन करते हैं या उस मुद्दे पर मौन रहते हैं। वहां प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेना प्रमुख, आईएसआई प्रमुख समेत सभी महत्त्वपूर्ण पद केवल अपने लिए रखते हैं। इन्हें 'उदारवादी' बहुत पसंद हैं। बस शर्त यह है कि वे पाकिस्तान से नहीं होने चाहिएं! अगर कोई पाकिस्तानी इस बात की वकालत करे कि उसके मुल्क को आतंकवाद और कट्टरता का रास्ता छोड़कर भारत के साथ सुलह कर लेनी चाहिए, तो वे उसे काट खाने को दौड़ते हैं। हां, कोई व्यक्ति (बशर्ते वह भारतीय हो या पश्चिमी देशों का मूल निवासी) नरम-नरम बातें करे, जो पाकिस्तान की आतंकवादी नीतियों पर सवाल न उठाए, जो पाकिस्तानी हमलों और खून-खराबे के बावजूद यह कहता रहे कि जवाबी कार्रवाई में क्या रखा है ... पाकिस्तानी लोग तो बड़े अच्छे हैं ... मेहमान-नवाज़ हैं, जो सनातन धर्म और संस्कृति के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां करे, जो यह सिद्ध करने के लिए पूरा जोर लगा दे कि ज्ञान-विज्ञान और कलाओं से भारत का सर्वप्रथम परिचय विदेशी आक्रांताओं ने ही कराया था, उसे वे (पाकिस्तानी) हाथोंहाथ लेते हैं। उससे बड़ा 'बुद्धिजीवी' किसी को नहीं मानते। आज भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण तो हो ही रहा है, आतंकवाद के खिलाफ भारतवासियों के रवैए में बहुत सख्ती भी आई है। इसलिए फवाद हुसैन हों या कोई और ... उन्हें पूरी आज़ादी है कि वे बीते दौर की 'सुनहरी यादों' के नाम पर गिले-शिकवे करते रहें, लेकिन अब दोस्ती के नाम पर काठ की हांडी नहीं चढ़ेगी।

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