प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल में एक जनसभा को संबोधित करते हुए इस राज्य के सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ का जो मुद्दा उठाया, उसे अत्यंत गंभीरता से लेने की जरूरत है। यूं तो नेतागण चुनावी भाषणों में आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं, लेकिन यह मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता से जुड़ा है। मुद्दे की गंभीरता इस बात से ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि 'पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ के कारण जनसांख्यिकी बदल रही है।' बांग्लादेश हमारा ऐसा पड़ोसी है, जिसकी आज़ादी के लिए भारतीय सैनिकों ने अपना लहू दिया था। वर्ष 1971 के युद्ध से पहले काफी लोग उस समय के पूर्वी पाकिस्तान से इधर आ गए थे। युद्ध समाप्त होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी कहा था कि जो शरणार्थी आए हैं, उन्हें अब अपने देश जाना चाहिए। हालांकि यह एक कड़वी हकीकत है कि बांग्लादेशियों को स्वदेश भेजने के लिए उस स्तर पर प्रयास नहीं हुए, जैसे होने चाहिए थे। जो लोग यहां रह गए, वे तो हैं ही, अब बांग्लादेश से भी लोग अवैध ढंग से यहां आ रहे हैं, रह रहे हैं! जब आपको आजादी मिल गई, अपना अलग देश मिल गया, जहां लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार है, जिसके नेतृत्व में अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है ... इन सबके बावजूद अवैध ढंग से भारत में आने / यहां रहने का क्या औचित्य है? अब आपका बोझ भारत क्यों उठाए? ऐसे लोगों के साथ कोई नरमी नहीं होनी चाहिए। उनकी पहचान कर स्वदेश भेजना जरूरी है, अन्यथा भविष्य में गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। भारत में रहकर घुसपैठियों की मदद करने वाले लोग भी इस अपराध में बड़े भागीदार हैं। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जब किसी बांग्लादेशी ने भारत में आकर फर्जी आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और अन्य दस्तावेज बनवा लिए। चंद रुपयों के लालच में देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने वाले ऐसे तत्त्वों को नहीं बख्शना चाहिए।
हाल में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इस गंभीर समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया था, जिन्होंने पाया कि प. बंगाल में फर्जी दस्तावेजों से बांग्लादेशी घुसपैठियों की मदद की जा रही है। बांग्लादेश के पासपोर्ट से भारत आकर एक शख्स ने यहां अपना फर्जी आधार कार्ड बनवा लिया। यही नहीं, उसने अपनी पूरी पहचान बदल ली। अपना नाम, माता-पिता का नाम, उम्र आदि बदलकर वह दस्तावेजों में भारतीय बन चुका था। यह तो एक मामला है। अगर गंभीरता से जांच करेंगे तो कई मामले सामने आएंगे। जब कभी घुसपैठियों को उनके देश भेजने की बात की जाती है तो कथित बुद्धिजीवियों और नेताओं का एक वर्ग उनकी हिमायत में खड़ा हो जाता है। वे अपने घरों में किसी अजनबी को एक घंटा भी न रहने दें, लेकिन बांग्लादेशी घुसपैठियों और रोहिंग्याओं को भारत में 'पूरी सुविधाएं' दिलाने के नाम पर जोरदार भाषण देते हैं। कुछ राजनीतिक दल घुसपैठियों को अपने संभावित वोटबैंक के तौर पर देखते हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि जब वे विपक्ष में होते हैं तो कभी-कभार 'घुसपैठ' का मुद्दा उठा देते हैं, लेकिन जैसे ही सत्ता में आते हैं, इस पर चुप्पी साध लेते हैं। वोटबैंक के नाम पर राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता के साथ ऐसे 'समझौते' की अनुमति किसी को क्यों मिलनी चाहिए? कुछ लोग घुसपैठ की समस्या के प्रति अगंभीर रवैया दिखाते हुए 'तर्क' देते हैं कि देश में इतने लोग रहते हैं, थोड़े-से लोग और रह लेंगे तो क्या हो जाएगा? वास्तव में यह कुतर्क है, अदूरदर्शिता का उदाहरण है। आज यूरोप के कई देश घुसपैठ की समस्या से त्रस्त हैं। वे कुछ दशक पहले तक काफी खुशहाल हुआ करते थे। आज वहां अव्यवस्था फैल रही है। आए दिन उत्पात की घटनाएं हो रही हैं। क्या हमें उनसे सबक नहीं लेना चाहिए? हमने अतीत में 'विदेशियों' को निर्बाध विचरण की अनुमति दी थी, जिसके परिणाम कालांतर में अत्यंत भयानक रहे। क्या हमें अपने ही अनुभवों से सबक नहीं लेना चाहिए? जो व्यक्ति भारत की सीमाओं में अवैध ढंग से दाखिल हो, यहां अवैध ढंग से रहे, उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। यही नहीं, जो व्यक्ति अवैध गतिविधियों में उसका मददगार बने, उसे भी कठोर दंड मिलना चाहिए। घुसपैठ करने वालों और करवाने वालों, दोनों में कानून का भय होना चाहिए, जो अभी नजर नहीं आ रहा है।