लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण का मतदान होने के बाद अब मतगणना के दौरान उम्मीदवारों के साथ ही एग्जिट पोल की भी परख होगी। ज्यादातर एग्जिट पोल में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को प्रचंड बहुमत मिलने का अनुमान लगाया गया है। हालांकि ऐसे अनुमानों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जब विभिन्न एग्जिट पोल आए तो उनमें मोदी की लोकप्रियता को तो स्वीकारा गया, लेकिन यह भी दावा किया गया कि मुकाबला कड़ा होगा। जब नतीजे आए तो राजनीति के बड़े-बड़े धुरंधर चकित रह गए थे। साल 2019 के लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान के बाद समाचार चैनलों के भव्य स्टूडियो में बैठे कई विश्लेषक दावा कर रहे थे कि सरकार तो राजग की बनेगी, अलबत्ता भाजपा की सीटें काफी घट जाएंगी। एग्जिट पोल में भी राजग की सरकार बनती दिख रही थी। जब नतीजे आए तो भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सीटों में काफी बढ़त देखने को मिली। सवाल है कि जनता का मूड भांपने का दावा करने वाले ये एग्जिट पोल वास्तविक नतीजों से इतने अलग क्यों होते हैं? वर्षों से चुनावी राजनीति का विश्लेषण करने वाले भी नतीजों का सटीक अनुमान लगाने में पीछे क्यों रह जाते हैं? वास्तव में भारत का मतदाता इतना परिपक्व हो चुका है कि उसके मिज़ाज को ठीक-ठीक समझ पाना तमाम एग्जिट पोल और विश्लेषकों के लिए टेढ़ी खीर है। प्राय: लोग वोट डालने से पहले या उसके बाद संबंधित उम्मीदवार या दल के बारे में एग्जिट पोल की टीम और विश्लेषकों को पूरी जानकारी देने से परहेज करते हैं। ऐसे में मतदाताओं के मन की थाह पाने में समीकरण गड़बड़ा जाते हैं।
कुछ 'विश्लेषक' चुनावी जनसभाओं में उमड़ी भीड़ के आधार पर नतीजों का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं। वे इस बात को नज़र-अंदाज़ कर देते हैं कि कई लोग एक से ज्यादा उम्मीदवारों की जनसभाओं में जा सकते हैं। लोग भीड़ के साथ पहले उम्मीदवार के लिए 'ज़िंदाबाद' के नारे लगा देते हैं तो वे ही नारे दूसरे या तीसरे उम्मीदवार की जनसभाओं में भी दोहरा देते हैं। भीड़ देखकर नेतागण में आत्मविश्वास आ जाता है। चुनावी जनसभाओं के नजारे देखकर उन्हें भी अपनी जीत पक्की नजर आने लगती है। जबकि बात इतनी सीधी नहीं है। अब भारतीय मतदाता जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषावाद, लुभावने वादों और आकर्षक नारों को पीछे छोड़ते हुए मुद्दों को ज्यादा महत्त्व देने लगा है। वह ज़माना गया, जब यह माना जाता था कि 'आम मतदाता राष्ट्रीय सुरक्षा, संस्कृति, रोजगार, विकास जैसे मुद्दों की खास परवाह नहीं करता ... अगर आप किसी खास परिवार या खास जाति से ताल्लुक रखते हैं तो इसी से बेड़ा पार हो जाएगा!' मतदाताओं में एक वर्ग ऐसा है, जो अपनी राय साझा करने में ज्यादा रुचि नहीं रखता। वह चुपचाप जाकर ईवीएम का बटन दबा आता है। वह देखता है- घर में बिजली आ रही है या नहीं, पानी आ रहा है या नहीं, राशन मिल रहा है या नहीं, गैस सिलेंडर आसानी से मिल रहा है नहीं, बिल जमा कराने और सरकारी सुविधाओं के लिए पंजीकरण कराते समय लंबी-लंबी कतारों से मुक्ति मिली है या नहीं ...? वह जान चुका है कि जातिवाद-सांप्रदायिकता के नाम पर दशकों से वोट लेने वाले दल उसका भला नहीं, बल्कि खुद का भला करने के लिए आए हैं। भारतीय मतदाता सुनता 'सबकी' और करता 'मन की' है। वह अपने घर वोट मांगने आए उम्मीदवारों, वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं को 'पक्का' आश्वासन देने के साथ विदा करता है, लेकिन ईवीएम का बटन उसी उम्मीदवार के पक्ष में दबाता है, जिसे वह चाहता है। बेशक लोकसभा चुनाव में कई उम्मीदवार जीतेंगे, कई हारेंगे। उनके बारे में तब तक दृढ़ता से कुछ नहीं कहा जा सकता, जब तक कि अंतिम नतीजे न आ जाएं। हां, इस चुनाव में जिसकी जीत सुनिश्चित है, उसका नाम है- भारतीय लोकतंत्र, जिसे मजबूत बनाने के लिए करोड़ों मतदाताओं ने योगदान दिया।