राजग के समक्ष चुनौतियां

केंद्रीय नेतृत्व के इतने प्रचार के बावजूद भाजपा क्यों पिछड़ी?

अब भाजपा के पास वैसा प्रचंड बहुमत नहीं है, तो उसकी नई सरकार के सामने उस तरह के 'कठोर' फैसले लेने में बाधा आ सकती है

लोकसभा चुनाव के नतीजों ने फिर एक बार यह साबित कर दिया कि राजनीति के धुरंधर हों या एग्जिट पोल के 'विशेषज्ञ', जनता के मन की थाह पाना बहुत मुश्किल है। भाजपा नेतृत्व '400 पार' नारे के साथ प्रचार कर रहा था, वहीं ज्यादातर एग्जिट पोल इस दल को पूर्ण बहुमत मिलने के साथ राजग की सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी कर रहे थे। ऐसे नतीजों की शायद ही किसी ने कल्पना की होगी। अगर भाजपा अपने बूते 272 का आंकड़ा पार कर लेती तो वह कुछ मजबूत स्थिति में होती। यह तर्क दिया जा सकता था कि दस साल में सत्ताविरोधी लहर का थोड़ा असर हुआ, लेकिन जनता ने बहुमत तो दे दिया! अब जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया है कि राजग की सरकार बनेगी, तो स्पष्ट है कि सहयोगी दलों पर निर्भरता भी होगी। चुनाव नतीजे आने के बाद हर कहीं यही सवाल चर्चा में है कि केंद्रीय नेतृत्व के इतने प्रचार के बावजूद भाजपा क्यों पिछड़ी? इस दल ने ऐसी कई सीटें गंवा दीं, जिन पर 'कमल' खिलने की प्रबल संभावना थी। प्रधानमंत्री मोदी की सीट वाराणसी में जीत का अंतर 1.52 लाख वोट रहा। माना तो यह जा रहा था कि इस बार वे इससे कम से कम दुगुने या तिगुने वोटों के अंतर से जीतेंगे। प्रधानमंत्री की रैलियों में भीड़ खूब उमड़ रही थी। वे सोशल मीडिया पर छाए हुए थे। उनके पास गिनाने के लिए कई उपलब्धियां थीं। फिर भी भाजपा ने ऐसी कई सीटें गंवा दीं, जिन पर उसकी जीत तय मानी जा रही थी! क्या जिन दलों ने भाजपा के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन किया, वे आगे भी एकजुट रहेंगे या 'परिस्थितियों' के आधार पर पाला बदलने में दिलचस्पी दिखाएंगे? सरकार चलाने के लिए मोदी का अपना मिज़ाज है, अपनी कार्यशैली है। फिर चाहे वह नोटबंदी हो, सर्जिकल स्ट्राइक व एयरस्ट्राइक हो, अनुच्छेद 370 को हटाने का फैसला हो ... उन्होंने जो ठाना, वह कर दिखाया, क्योंकि उनके पास अपने बूते पूर्ण बहुमत था।

अब भाजपा के पास वैसा प्रचंड बहुमत नहीं है, तो उसकी नई सरकार के सामने उस तरह के 'कठोर' फैसले लेने में बाधा आ सकती है। गठबंधन सरकारों की अपनी मजबूरियां होती हैं। उनके घटक दल समय-समय पर यह जाहिर करते रहते हैं कि हमारे बगैर न कोई सरकार बन सकती है और न चल सकती है। घटक दलों का अपना वोटबैंक होता है। अगर उन दलों को लगेगा कि सरकार का कोई फैसला उनके वोटबैंक को रुष्ट कर सकता है तो वे अपने तेवर दिखाने से पीछे नहीं हटेंगे। ऐसे में क्या नई सरकार समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढ़ाएगी? क्या बांग्लादेश, म्यांमार जैसे देशों से होने वाली घुसपैठ को नियंत्रित करने के लिए कोई कठोर कार्रवाई होगी? क्या 'एक देश, एक चुनाव' का नारा बौद्धिक चर्चाओं तक ही सीमित रहेगा या उसे क्रियान्वित किया जाएगा? मुद्दे और भी हैं, जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। क्या नई सरकार सुधारों की ओर दृढ़ता से कदम उठा सकेगी? इन चुनाव नतीजों को देखकर साल 2004 के नतीजों की यादें ताजा हो जाती हैं, जब भाजपा 'इंडिया शाइनिंग' का नारा लगा रही थी और एग्जिट पोल्स में उसकी धमाकेदार वापसी के पूर्वानुमान लगाए जा रहे थे। नतीजे उसके ठीक उलट आए थे। हालांकि साल 2024 के नतीजे वैसे नहीं हैं, लेकिन भाजपा के लिए खास उत्साहजनक भी नहीं हैं। वह सबसे बड़ा दल बनकर जरूर उभरी है। अगर सहयोगी दल उसके साथ दृढ़ता से बने रहे तो सरकार जनकल्याण से जुड़े महत्त्वपूर्ण फैसले ले सकेगी और कार्यकाल पूरा करेगी। अब भाजपा नेतृत्व को उन कारणों का पता लगाना चाहिए, जो उसके 'विजयरथ' के मार्ग में बाधक रहे। कई जगहों पर कम मतदान प्रतिशत भी एक कारण हो सकता है। वहां मतदाताओं ने वोट डालने में खास उत्साह नहीं दिखाया। भाजपा के कई नेताओं व कार्यकर्ताओं को अति-आत्मविश्वास हो गया था कि मोदी के नाम पर उनकी नैया पार हो ही जाएगी। वे सोशल मीडिया पर खूब जोश दिखाते रहे। लोगों के बीच उनकी मौजूदगी कम रही। मोदी अकेले सब जगह आपको जीत नहीं दिला सकते। भाजपा को अपना संगठन धरातल पर मजबूत करना होगा। उसने ओडिशा में पूरे जोश के साथ लड़ाई लड़ी, जिसका नतीजा शानदार आया है।

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